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________________ क्रमबद्धपर्याय की श्रद्धा में पुरुषार्थ प्रकरण में मोक्ष पुरुषार्थ को अर्थात् वीतरागतारूपी भावों को ही पुरुषार्थ के नाम से संबोधित किया है; इसलिए इस पुस्तकमाला के प्रत्येक प्रकरण में पुरुषार्थ का अर्थ मात्र पुरुष अर्थात् आत्मा, उसका अर्थ अर्थात् प्रयोजन - मोक्ष ऐसा समझना । ४ इसप्रकार कार्य की सम्पन्नता में पाँचों समवायों की स्वतंत्रतापूर्वक समग्रता स्वीकार करते हुए, आत्मा को ज्ञायक - अकर्ता मानकर तद्रूप परिणमन कराना ही आत्मा का यथार्थ पुरुषार्थ है । यही द्वादशांग का सार है। इस संबंध में पूज्य गुरुदेवश्री कानजी स्वामी ने ज्ञानस्वभाव - ज्ञेयस्वभाव के पृष्ठ २६३ पर कहा है "जहाँ जीव सच्चा पुरुषार्थ करता है, वहाँ स्वयं अन्य चारों समवाय होते हैं। पाँचों समवायों का संक्षिप्त स्वरूप इसप्रकार है - १. मैं पर का कुछ करनेवाला नहीं हूँ, मैं तो ज्ञायक हूँ, मेरी पर्याय मेरे द्रव्य में से आती है, इसप्रकार स्वभावदृष्टि करके पर की दृष्टि तोड़ना सो पुरुषार्थ है । २. स्वभावदृष्टि का पुरुषार्थ करते हुए जो निर्मलदशा प्रगट होती है, वह दशा स्वभाव में थी सो वही प्रगट हुई है अर्थात् जो शुद्धता प्रगट होती है वह स्वभाव है । ३. स्वभावदृष्टि के पुरुषार्थ से स्वभाव में से जो क्रमबद्धपर्याय उससमय प्रगट होनी थी, वही शुद्धपर्याय उस समय प्रगट हुई सो नियति है । स्वभाव की दृष्टि के बल से स्वभाव में जो पर्याय प्रगट होने की शक्ति थी वही पर्याय प्रगट हुई है। बस, स्वभाव में से जिससमय जो दशा प्रगट हुई क्रमबद्धपर्याय की श्रद्धा में पुरुषार्थ वही पर्याय उसकी नियति है । पुरुषार्थ करनेवाले जीव के स्वभाव में जो नियति है, वही प्रगट होती है, बाहर से नहीं आती। ४. स्वदृष्टि के पुरुषार्थ के समय जो दशा प्रगट हुई वही उस वस्तु का स्वकाल है। पहले पर की ओर झुकता था उसकी जगह स्वोन्मुख हुआ सो यही स्वकाल है। ५. जब स्वभावदृष्टि से यह चार समवाय प्रगट हुए तब निमित्तरूप कर्म उसकी अपनी योग्यता से स्वयं हट गये, यह निमित्त है । इसमें पुरुषार्थ, स्वभाव, नियति और काल यह चार समवाय अस्तिरूप हैं अर्थात् वे चारों उपादान की पर्याय से सम्बद्ध हैं और पाँचवाँ समवाय नास्तिरूप है, वह निमित्त से सम्बद्ध है । यदि पाँचवाँ समवाय आत्मा में लागू करना हो तो वह इसप्रकार है - परोन्मुखता से हटकर स्वभाव की ओर झुकने पर प्रथम चारों अस्तिरूप में और कर्म को नास्तिरूप में; इसप्रकार आत्मा में पाँचों समवायों का परिणमन हो गया है अर्थात् निज के पुरुषार्थ से पाँचों समवाय अपनी पर्याय में समाविष्ट हो जाते हैं । प्रथम चार अस्ति से और पाँचवाँ नास्ति से अपने में है। " तत्त्व (ज्ञायक) का निर्णय ही यथार्थ पुरुषार्थ है प्रश्न : उक्त पुरुषार्थ कैसे हो ? इस विषय की स्पष्टता के लिए मोक्षमार्ग प्रकाशक के “पुरुषार्थ से मोक्ष प्राप्ति" नामक प्रकरण पृष्ठ ३०९ से ३१३ तक अवश्य पढ़ना चाहिए। उसके पृष्ठ ३१२ पर कहा है कि -
SR No.008356
Book TitleKrambaddha Paryaya ki Shraddha me Purusharth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages48
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size200 KB
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