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________________ क्रमबद्धपर्याय की श्रद्धा में पुरुषार्थ को जाननेवाला अलग हो - ऐसा नहीं है; वह तो मात्र जानता ही है; लेकिन जिन को जानता है वे स्व-पर में विभाजित हैं और उन सब का प्रकाशन ज्ञान में होता है; क्योंकि आत्मा में प्रकाश नाम की शक्ति है, उस शक्ति का कार्य है आत्मा के गुणों का संवेदन आत्मा को होना । ज्ञान स्व-परप्रकाशक है। पर में प्रकाशन करना ज्ञान का कार्य नहीं है। अन्य को तो वचनों द्वारा जानकारी होती है, अत: अन्य को वह जानकारी प्राप्त होने में तो वे शब्द वर्गणाएँ निमित्त होती हैं, न कि आत्मा का ज्ञान । ज्ञान का विषय तो द्रव्य-गुण-पर्याय सहित पूरा पदार्थ होता है, स्व में तो अपना आत्मद्रव्य पूरा पदार्थ होता है और पर में, जो भी ज्ञेय बनते हैं वे भी पूरे पदार्थ होते हैं। ज्ञान पूर्ण प्रगट हो जाने पर तो स्व एवं पर समस्त पदार्थ उनके गुण-पर्यायों सहित ज्ञात हो जाते हैं। छहढाला में कहा हैं - "सकल द्रव्य के गुण अनन्त पर्याय अनन्ता, जानै एकै काल प्रगट केवलि भगवन्ता।" छद्मस्थ का ज्ञान भी अपनी योग्यतानुसार जिन ज्ञेयों को जानता है, वह भी पूरे पदार्थ को विषय बनाता है; लेकिन साथ में वर्तनेवाला श्रद्धा गुण उन पदार्थों में से मात्र एक को ही स्व मानता है; क्योंकि उसका स्वभाव स्व-पर प्रकाशक अर्थात् द्वैत नहीं है; ज्ञान दोनों को उसी समय जानता है; लेकिन श्रद्धा ने जिसमें अपनत्व किया उसको स्व के रूप में जानता है तथा अन्य सब पर के रूप में रह जाते हैं। यह ज्ञान का कार्य रहता है। इसप्रकार से भी ज्ञान में स्व-पर का विभाजन होता है। आत्मा में एक स्व-स्वामित्व सम्बन्ध नाम की शक्ति है। (अपना भाव, स्वभाव अपना स्व है और स्वयं उसका स्वामी है - क्रमबद्धपर्याय की श्रद्धा में पुरुषार्थ ऐसे सम्बन्धमयी सम्बन्धशक्ति) इस शक्ति के कारण आत्मा के अनन्त गुणों का स्वामी आत्मा है। ज्ञान का स्वामी भी आत्मा है और श्रद्धा का स्वामी भी आत्मा है। श्रद्धा का कार्य है अपना मानना । इसप्रकार आत्मा का स्वभाव स्व को ही स्व मानना है और ज्ञान का स्वभाव भी स्व को स्व जानना है। पर को स्व मानना एवं पर को स्व जानना विभाव है। स्वभाव तो ज्ञानी अथवा अज्ञानी सब की आत्माओं का समान रहता है। अज्ञानी ने स्वभाव से विपरीत पर को स्व मान रखा है, यह उसकी मान्यता की भूल है, विपरीतता है; लेकिन उसके मानने से स्वभाव तो नहीं बदल जाता; इसलिये वस्तु तो जैसी की तैसी ही बनी रहती है, मान्यता तो पर्याय में होती है, पर्याय उत्पाद-व्ययस्वभावी होने से वह प्रतिसमय बदलती रहती है; इसलिये अज्ञानी जब भी यथार्थ समझ के द्वारा अपनी मान्यता बदलने का पुरुषार्थ करे तो मिथ्यामान्यता का अभाव करके, सम्यक् मान्यता प्रगट करके स्वयं ज्ञानी बन सकता है; इसलिये मोक्षमार्ग सरल है, कठिन नहीं। ज्ञानी की दृष्टि सम्यक् हो जाने से उसको सभी कार्य यथार्थ भासने लगते हैं। व्युत्पन्न अज्ञानी को भी प्राथमिक दशा में ज्ञान के जानने की स्वाभाविक प्रक्रिया द्वारा स्व तो हो जाता है प्रमाणरूप अपना आत्मद्रव्य और बाकी रहे प्रमाणरूप छहों द्रव्य हो जाते हैं पर, इसप्रकार के विभाजन में सारे विश्व से भेदज्ञान होकर अपनापन मात्र अपने द्रव्य में सीमित हो जाता है; ऐसी महान उपलब्धि होती है इस प्रक्रिया की। ध्यान रहे ऐसी भेदज्ञान की प्रक्रिया भी ज्ञान को पदार्थों के सन्मुख होकर नहीं होती; अपितु ज्ञान के सन्मुख रहते हुए होती है; क्योंकि ज्ञान के सन्मुख पदार्थ तो होते नहीं, ज्ञान ही उनके आकार होकर वह ज्ञान ही ज्ञात होता है पदार्थ नहीं होते। उन आकारों में ही
SR No.008356
Book TitleKrambaddha Paryaya ki Shraddha me Purusharth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages48
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size200 KB
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