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क्रमबद्धपर्याय की श्रद्धा में पुरुषार्थ ज्ञान क्रिया आत्मा की स्वभावभूत क्रिया है; क्योंकि आत्मा का जाननस्वभाव है। उसका जाननस्वभाव कभी विपरीत नहीं होता, अशुद्ध नहीं होता अर्थात् जानने के विपरीत, नहीं जानना नहीं होता तथा अशुद्ध को जानने से अशुद्ध नहीं होता । जानने के विषयों को कम जानना, यह तो ज्ञान की मंदता है न कि अशुद्धि, यह तो जाननेवाली पर्याय की सामर्थ्य की कमी के तारतम्यता की सूचक है। तात्पर्य यह है कि आत्मा के प्रदेशों में उत्पन्न होनेवाले मोहरागादि भावों के जानने के समय भी ज्ञान विकृत नहीं हो जाता; वह तो उन भावों को भी उनसे निरपेक्ष रहकर उनको मात्र जान लेता है। मोह-रागादि भावों के उत्पादक तो श्रद्धा एवं चारित्र गुण के विपरीत परिणमन है; आत्मा के प्रदेशों में उत्पन्न होते हुये भी वे ज्ञान नहीं है, भावभेद होने के कारण वे पर हैं - परज्ञेय हैं; उनमें अतद्भावरूप भिन्नता है; इसलिये ज्ञान तो उसका भी तटस्थ ज्ञाता है, ज्ञान का स्वज्ञेय तो उसका स्वामी ऐसा एकमात्र ज्ञायक ध्रुव भाव है, जो अनन्त गुणों का अखण्ड पिंड ऐसा सामान्य-अभेद-नित्य और एक स्वभावी ध्रुव तत्त्व है, बाकी सब पर हैं, ऐसी श्रद्धा होने से परिणति सब ओर से सिमटकर ज्ञायक में एकत्व करने के लिये तत्पर हो जाती है ज्ञान भी अतीन्द्रियता प्राप्त करने की पात्रता उत्पन्न कर लेता है।
प्रश्न - ज्ञान की ज्ञेयाकार परिणमन ही ज्ञानपर्याय है, आत्मा उसी को जानता है। इसमें तो ज्ञेय-ज्ञायक सम्बन्ध का भी निषेध हो जाता हैं ? परज्ञेयों के जानने का भी निषेध हो जावेगा ?
उत्तर - भाई ! ज्ञेय-ज्ञायक सम्बन्ध तो वस्तु का स्वभाव है, उसका तो किसीप्रकार से अभाव हो ही नहीं सकता। आत्मा का जानना स्वभाव है तो वह जिसको भी जानेगा वह ही तो ज्ञेय है; अत: उसके निषेध से तो ज्ञान का भी निषेध हो जावेगा और ज्ञेय
क्रमबद्धपर्याय की श्रद्धा में पुरुषार्थ की स्थापना तो ज्ञेयाकार कहने से ही हो जाती है, निषेध कैसे हो जाता है ? किन्तु स्थापना होती है निमित्त के रूप में, उपादानरूप में नहीं। निमित्त और नैमित्तिक का समकाल होने से उसका किसी भी प्रकार से निषेध हो ही नहीं सकता; क्योंकि ज्ञान के जाननेरूप कार्य की संपन्नता, पाँच समवायपूर्वक ही होती है। प्रत्येक कथन की अपेक्षा समझनी चाहिये। उपादान कारण की मुख्यता से किये गये कथन में निमित्त तो गौण ही रहेगा। ज्ञेय-ज्ञायक सम्बन्ध तो प्रत्येक जीव, सिद्ध तक को अनवरतरूप से रहता ही है।
परज्ञेयों के जानने का अभाव तो कहीं भी नहीं होता। केवली भगवान को स्व में तन्मयता पूर्वक पर का जानना होता है और अज्ञानी को तो मात्र पर का ही जानना होता है; किन्तु अपनत्वपूर्वक होता है। ज्ञानी को भी पर का जानना होता है; किन्तु अपनत्व रहित होता है; परन्तु जीवमात्र को पर का जानना तो हुए बिना रहता नहीं; इसलिये पर के जानने का निषेध तो हो ही नहीं सकता। समयसार गाथा २७० की टीका में तो धर्मद्रव्य आदि पर को अपनत्व पूर्वक जानने का निषेध किया गया है, न कि जानने का निषेध किया है; अत: ऐसी शंका निर्मूल है।
प्रश्न - ज्ञेयाकार ज्ञान में स्व-पर का विभाजन कैसे रहेगा ?
उत्तर - सकल विश्व ही स्व-पर में विभाजित है, प्रत्येक वस्तु अपने लिये तो स्व है और अन्य वस्तुएँ उसके लिये पर हो जाती हैं करना नहीं पड़ता। ज्ञान तो मात्र जो जैसा है वैसा जान लेता है। ज्ञान का कार्य विभाजन करना नहीं है, मात्र जानना है; स्वपर प्रकाशक तो ज्ञेयों में द्वैत होने से उनके भेदों के प्रकाशन की अपेक्षा है। स्व को जानने वाला ज्ञान अलग हो और पर