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क्रमबद्धपर्याय की श्रद्धा में पुरुषार्थ
क्रमबद्धपर्याय की श्रद्धा में पुरुषार्थ
पुरुषार्थ क्या ? पुरुषार्थ का अभिप्राय आत्मा का ज्ञायकत्व एवं अकर्तृत्वस्वभावरूप परिणमन है; यह ही आत्मा का वास्तविक पुरुषार्थ है।
पुरुषार्थ का शब्दार्थ है, “पुरुष' = आत्मा और “अर्थ" = प्रयोजन अर्थात् जो आत्मा का प्रयोजन हो वही आत्मा का पुरुषार्थ है । आत्मा का प्रयोजन तो पूर्ण सुखी होना अर्थात् सिद्धदशा प्राप्त करना है। सिद्ध का आत्मा ज्ञायक अकर्तास्वभावी है और वीतरागता पूर्वक ही उसरूप परिणमन होता है। स्वभाव से ही आत्मा स्व को जानता हुआ पर को भी जानता है। उनका आत्मा ज्ञायक अकर्तास्वभावी होने से वह स्व को तो तन्मयतापूर्वक जानता है एवं पर को अतन्मयतापूर्वक मात्र जानता है। जानने के अतिरिक्त कुछ नहीं करता, फलतः उनको रागादि नहीं होते वीतरागी रहते हैं। उसको प्राप्त करने का मार्ग भी तदनुसार ही होता है। इसलिये स्व में अपनत्वपूर्वक आत्मा को ज्ञायक और पर का अकर्ता मानते हुए उस रूप परिणमन करने का पुरुषार्थ ही आत्मा का यथार्थ पुरुषार्थ है । यही मोक्षमार्ग का पुरुषार्थ है। मन-वच-काय की किसी प्रकार की क्रिया, मोक्षमार्ग का यथार्थ पुरुषार्थ नहीं है।
अज्ञानीजन पुरुषार्थ का संसारवर्धक और राग पोषक विपरीत अर्थ निकालते हैं, वे समझाते हैं कि पुरुष अर्थात् संसारी जीव को