________________
पृष्ठ
१-५
५-७
७-९
९-१७
१७-२२
२२-२४
२४-२५
२५-२९
३०-३२
३२-३८
३८-४१
४१-४८
४८-५०
५०-५१
५१-५१
५१-६०
६१-६२
६२-६६
६६-६८
६८-६९
७०-७३
७३–७७
७७-८३
८३-८८
८८-८९
विषय-सूची
विषय
पुरुषार्थ क्या ?
ज्ञायक (तत्त्व) का निर्णय ही यथार्थ पुरुषार्थ है तत्त्वनिर्णय का अभिप्राय
ज्ञान की जानने की प्रक्रिया
ज्ञेयाकार - ज्ञानाकार कैसे ?
क्रमबद्धपर्याय की स्वीकृत द्रव्यदृष्टि उत्पादक है क्रमबद्ध की श्रद्धा ज्ञानी को होती है ?
भेदज्ञान
प्रज्ञाछैनी
ज्ञायक की पहिचान
विशेष में एकत्व से विकार होता है।
सामान्य में अपनत्व का लाभ
ज्ञानपर्याय में उपादेयता से हानि जाननक्रिया समझने की उपयोगिता
अनाकुल आनन्द की प्रगटता का उपाय
आत्मा का मूलस्वभाव एवं जाननक्रिया अभेदपरिणमन में श्रद्धा- ज्ञान का कार्य भिन्न कैसे ? श्रद्धा सामान्य में अपनत्व करती है। ज्ञानधारा एवं कर्मधारा
क्रमबद्धपर्याय की श्रद्धा से उपलब्धि क्रमनियमित परिणमना स्वभाव है। क्रमबद्ध की श्रद्धा से ज्ञायक से एकत्व भावकर्मों के अभाव का पुरुषार्थ
निष्कर्ष
सारांश
प्रकाशकीय
" क्रमबद्धपर्याय की श्रद्धा में पुरुषार्थ' आदरणीय श्री नेमीचन्दजी पाटनी की अन्तिम कृति है, जिसकी रचना उन्होंने रुग्णावस्था में की। इस कृति का प्रकाशन करते हुए हमें अतीव प्रसन्नता का अनुभव हो रहा है।
श्री पाटनीजी जैनसमाज के जाने-माने समाज सेवक थे। वे एक ओर जहाँ राष्ट्रीय स्तर की बड़ी-बड़ी संस्थाओं के कुशल संचालन में सिद्धहस्त थे, वहीं वे जिनवाणी का स्वयं रसपान करने और कराने की भावना से सदा ओतप्रोत रहे।
ऐसे महान व्यक्तित्व विरले ही देखने को मिलेंगे, जिन्होंने अपने सम्पूर्ण जीवन को जिनवाणी के प्रचार-प्रसार में समर्पित किया है, पाटनीजी उनमें अग्रणी रहे हैं। • जिस उम्र में सारा जगत अपने उद्योग-धंधों को आगे बढ़ाने में दिन-रात एक करता देखा जाता है, उस उम्र में आदरणीय पाटनीजी पूज्य श्री कानजी स्वामी के द्वारा प्रतिपादित तत्त्वज्ञान से प्रभावित होकर उस ज्ञान को जन-जन तक पहुँचाने हेतु घर-परिवार की ओर से अपना लक्ष्य हटाकर उद्योग-धंधों की परवाह न करके पूज्य श्री कानजी स्वामी के मिशन में सम्मिलित हो गए और अल्प समय में अपने कुशल नेतृत्व द्वारा वहाँ महत्त्वपूर्ण स्थान बना लिया।
ज्यों-ज्यों समय बीतता गया पाटनीजी की तत्त्वज्ञान के प्रति समर्पण की भावना बढ़ती चली गई । सन् १९६४ में स्व. सेठ पूरनचंदजी गोदिका द्वारा जयपुर में श्री टोडरमल स्मारक भवन की नींव रखी गई, तभी से आप पण्डित टोडरमल स्मारक ट्रस्ट के महामंत्री रहे । श्री टोडरमल स्मारक भवन का वह वट बीज, जो आज एक महान वट वृक्ष के रूप में पल्लवित हो रहा है, उसमें डॉ. भारिल्ल के अतिरिक्त पाटनीजी का ही सर्वाधिक योगदान है।
प्रस्तुत प्रकाशन के पूर्व श्री पाटनीजी की और भी अनेक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं; जिनमें 'सुखी होने का उपाय' भाग-१ से ८ तक भी हैं, जो आध्यात्मिक तलस्पर्शी ज्ञान के कोश हैं। यद्यपि हिन्दी भाषा साहित्य के सौन्दर्य की दृष्टि से उक्त पुस्तकें भले ही खरी न उतरें परन्तु भावों की दृष्टि से जैनदर्शन के मर्म को समझने/ समझाने में ये पुस्तकें पूर्ण समर्थ हैं।
प्रस्तुत प्रकाशन क्रमबद्धपर्याय की श्रद्धा में पुरुषार्थ' पढ़कर आप सभी का यथार्थ पुरुषार्थ प्रगट हो और अनन्त सुखी हों, इसी भावना के साथ
- ब्र. यशपाल जैन प्रकाशन मंत्री पंडित टोडरमल स्मारक ट्रस्ट, जयपुर