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________________ ४६ ४७ क्रमबद्धपर्याय की श्रद्धा में पुरुषार्थ लक्ष्य में रखने योग्य है। निमित्त की मुख्यता से उसी कार्य को नैमित्तिक कहा जाता है और उपादान की मुख्यता से उपादेय (ग्रहण करने योग्य नहीं) कहा जाता है। ज्ञानी की तो श्रद्धा सम्यक् हो जाने से, उसको तो कथन पद्धति द्वारा किये गये कथनों से भ्रम नहीं होता; जानन क्रिया का कर्ता ज्ञान को ही मानता है, ज्ञेय अथवा कर्म के क्षयोपशम को नहीं। इसके विपरीत अज्ञानी भ्रमित होकर निमित्तों को कार्य का करने वाला मान लेता है। इस प्रकार दोनों की श्रद्धा में अन्तर होने से ज्ञान भी भ्रमित हो जाता है। दूसरा प्रश्न है कि ज्ञेय पदार्थ को जाने बिना, ज्ञेयाकार ज्ञान में सामान्य-विशेष का विभाजन कैसे हो पावेगा? समाधान बहुत स्पष्ट है कि निमित्त और नैमित्तिक का समकाल होता है और ज्ञेय के अनुरूप ही ज्ञान का परिणमन होता है। तभी वह निमित्त कहलाता है; इसलिये ज्ञेय पदार्थ और ज्ञेयाकार ज्ञान एक सरीखे ही होते हैं, उनमें कोई अन्तर नहीं होता। ज्ञेय पदार्थ सामान्य-विशेषात्मक है तो ज्ञान की पर्याय भी ज्ञेय को सामान्य-विशेषात्मक जानती हुई उत्पन्न होती है; ऐसा अविनाभावी सम्बन्ध है; अतः उक्त शंका भी निरस्त हो जाती है और निश्चित हो जाता है कि ज्ञान का जानना सामान्य-विशेषात्मक ही होता है। तीसरी शंका है कि ज्ञेय पदार्थ सामान्य-विशेषात्मक होते हुए भी श्रद्धा, उनमें से मात्र सामान्य में ही अपनत्व कैसे करेगी? समाधान स्पष्ट है कि ज्ञान तो सविकल्पक अर्थात् स्व एवं पर द्वैत को जानता है; इसलिये वह तो ज्ञान द्वारा समग्र पदार्थ को जानता है; इसलिये वह एक साथ सामान्य-विशेषात्मक संपूर्ण पदार्थ को ग्रहण कर लेता है और वही ज्ञान, नयज्ञान द्वारा द्रव्य और पर्याय अथवा सामान्य (अभेद) और विशेष (भेद) ऐसे भेद करके भी उसी पदार्थ को क्रमबद्धपर्याय की श्रद्धा में पुरुषार्थ जानता है। दूसरी ओर श्रद्धा निर्विकल्पक होने से उसका विषय सामान्य-अभेद-नित्य और एक ही होता है; इसलिये ज्ञान द्वारा प्रस्तुत विषयों में से श्रद्धा, द्रव्यार्थिक नय के विषय, ऐसे सामान्य में अर्थात् त्रिकाली ज्ञायक में अपनत्व स्थापन कर लेती है अर्थात् उस रूप अपने को मानने लगती है। इस प्रक्रिया में अन्य जितने भी विषय थे ज्ञान में यथावत् बने रहते हैं। लेकिन श्रद्धा के लिये तो वे नहींवत् होते हैं। तत्पश्चात् ज्ञान में तो श्रद्धा द्वारा स्थापित स्वज्ञेय और उसमें अपनत्व का ज्ञान एवं परज्ञेयों का और उनमें परत्व का ज्ञान भी समान कोटि से व्यक्त वर्तता रहता है। मुख्यता-गौणता अथवा लब्ध्यात्मक ज्ञान अथवा उपयोगात्मक ज्ञान ये तो ज्ञान पर्याय की प्रगटता के भेद है; लेकिन श्रद्धा में तो उसका विषय सदैव व्यक्त रहता है। इसके विपरीत, अज्ञानी का ज्ञान भी जानता तो सामान्य विशेषात्मक समग्र पदार्थ को ही है; लेकिन अनादिकाल से उसकी तो पर में अपनेपने की मान्यता धारावाहिक चलती चली आ रही है। और मान्यता तो श्रद्धा का कार्य है, वह कार्य तो अक्षुण्ण रूप से तब तक धारावाहिक चलता रहता है जबतक वह अपनी मान्यता स्वयं नहीं बदले; इसलिये अज्ञानी की मान्यता तो अनादि की है। ऐसी मान्यता को मिथ्या श्रद्धा-मिथ्यादर्शन-मिथ्यात्व आदि कहा जाता है। ऐसे अज्ञानी को न तो स्व एवं पर का विवेक होता है और न सामान्य-विशेष तथा द्रव्य-पर्याय का यथार्थ ज्ञान होता है और न वह नय ज्ञान का महत्त्व एवं यथार्थ प्रयोग जानता है और मिथ्या श्रद्धा होने से उसका ज्ञान भी स्थूल रहता है; इसलिये वह पर को ही स्व मानकर, उस ही में एकत्वपूर्वक वर्तता रहता है। उसकी श्रद्धा में तो व्यक्त पर्याय ही स्व होती है। फलतः उसको तो पर में अपनेपन की मान्यता ही, स्वाभाविक लगती हैं और अपने आत्मा का स्वरूप
SR No.008356
Book TitleKrambaddha Paryaya ki Shraddha me Purusharth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages48
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size200 KB
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