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________________ क्रमबद्धपर्याय की श्रद्धा में पुरुषार्थ क्रमबद्धपर्याय की श्रद्धा में पुरुषार्थ नहीं जान सकेगा: इसप्रकार श्रद्धा का परिणमन धारावाहिक अक्षुण्ण रूप से तब तक चलता रहता है, जब तक श्रद्धा स्वयं ही अपनी मान्यता नहीं बदलती, इसीप्रकार अज्ञानी को भी ज्ञायक के अतिरिक्त अन्य ज्ञेयों में अपनेपने की मान्यता व्यक्त रूप से वर्तती रहती है; लेकिन उसको मान्यता तो कोई कार्य ही नहीं लगता और वह उसको मिथ्या भी नहीं मानता; उसको वह स्वाभाविक लगती है। इसकारण उसका कार्य प्रगट होते हुए भी उसको श्रद्धा का भी कोई कार्य हो ऐसा नहीं लगता। प्रश्न - ज्ञान तो ज्ञेयाकार परिणत अपनी ज्ञानपर्याय को ही जानता है, ऐसी स्थिति में वह, ज्ञेय पदार्थों में स्थित सामान्यविशेषों को जानकर, सामान्य में एकत्व कैसे कर सकेगा? उत्तर - ज्ञान, ज्ञेयाकार परिणत ज्ञान पर्याय को जानता है, यह तो उपादान की मुख्यता से किया गया कथन है। कार्य की संपन्नता तो पाँच समवायों के समवायीकरणपूर्वक ही होती है। पाँच समवाय में चार तो कार्यरूप परिणत होने वाले उपादान द्रव्य में होते हैं और पाँचवाँ निमित्त नाम का समवाय पर द्रव्य का परिणमन होता है। ऐसा निमित्त नाम का समवाय कार्य की संपन्नता के समय कार्यरूप परिणमन नहीं करते हुए भी, अपने में अपनी योग्यता से उसी कार्य के अनुकूल परिणमते हुए, कार्य की संपन्नता में निमित्त होता है। उसकी उपस्थिति भी उतनी ही अनिवार्य है, जितनी उपादान की। इसीकारण उपादान के चारों समवायों को मिलाकर उपादान कारण संज्ञा प्राप्त होती है और निमित्त एक को ही निमित्त कारण संज्ञा प्राप्त होती है। पाँचों समवायों के समवायीकरणपूर्वक कार्य तो एक ही होता है। उसी कार्य को उपादानकारण की मुख्यता से उपादान का कार्य कहा जाता है और उसी कार्य को निमित्त कारण की मुख्यता से निमित्त का कार्य कह दिया जाता है; जबकि स्थिति यह है कि उस कार्य को सम्पन्न कराने वाला न तो अकेला उपादान ही है और न अकेला निमित्त ही है। दोनों की समग्रता कार्य की उत्पादक है। ___ इसीप्रकार ज्ञेय को जाननेरूप कार्य तो ज्ञान में एक ही हुआ है; लेकिन उसके कारण दो हो जाते हैं, उपादान तो चार समवाय युक्त ज्ञान पर्याय होती है और निमित्त ज्ञेयरूपी पदार्थ होता है। निमित्त के भी २ भेद होते हैं, बहिरंग निमित्त तो ज्ञेय पदार्थ होता है और अन्तरंग निमित्त ज्ञानावरणी कर्म का क्षयोपशम होता है। जानने का कार्य तो ज्ञान पर्याय में होता है; इसलिये आत्मा की ज्ञानपर्याय ने तो अपनी तत्समय की योग्यता से नियतकाल में अपनी स्वशक्ति से जानने का कार्य किया है। तब सहज ही प्रश्न उपस्थित हो जावेगा कि ज्ञान ने किसको जाना? उसकी पूर्ति करता है बहिरंग निमित्त अर्थात् जिसको जाना वह है उस कार्य का बहिरंग निमित्त और उसी समय आत्मा की जानने की शक्ति के प्रादुर्भाव में निमित्त हुआ, ज्ञानावरणी आदि द्रव्य कर्मों का तदनुकूल क्षयोपशम, वह है अन्तरंग निमित्त । इसप्रकार जानने रूप कार्य का उत्पादन तो सभी के समवायीकरणपूर्वक हुआ है; लेकिन उसका परिचय कराने के लिये तो किसी एक कारण की ही मुख्यता से परिचय कराया जा सकता है। उपादान की मुख्यता से यही कहा जावेगा कि ज्ञान की पर्याय ज्ञेयाकार हुई, वह ज्ञान की ही पर्याय है, ज्ञेयाकार ज्ञानाकार ही है; इसलिये आत्मा तो ज्ञानपर्याय को जानता है। उसी जानन क्रिया को निमित्त की मुख्यता से परिचय कराने के लिये यह कहा जावेगा कि आत्मा में तत्समय ज्ञानावरणी कर्म का तद्तद् ज्ञेय को जानने का क्षयोपशम होने से उस ज्ञेय को जाना । दोनों प्रकार की कथन पद्धति द्वारा एक ही कार्य का परिचय कराया गया है, यह
SR No.008356
Book TitleKrambaddha Paryaya ki Shraddha me Purusharth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNemichand Patni
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages48
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size200 KB
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