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जोगसारु ( योगसार )
( दूहा - २१ )
जो जणु सो अप्पा मुणहु, इहु सिद्धंतहँ सारु । इउ जाणेविणु जोइयहो, अण्णु म करहु वियप्पु ॥ ( हरिगीत )
सिद्धान्त का यह सार माया छोड़ योगी जान लो । जिनदेव अर शुद्धातमा में कोई अन्तर है नहीं । हे योगी ! सम्पूर्ण सिद्धान्तों का सार यह है कि जो जिन है वही आत्मा है, अतः तुम इसे जानो और सर्व मायाचार को छोड़ दो।
( दूहा - २२ )
जो परमप्पा सो हिउँ, जो हउँ सो परमप्पु । इउ जाणेविणु जोइया, अण्णु म करहु वियप्पु ।। ( हरिगीत )
है आत्मा परमातमा परमातमा ही आतमा । हे योगिजन ! यह जानकर कोई विकल्प करो नहीं ।। हे योगी ! जो परमात्मा है वही मैं हूँ और जो मैं हूँ वही परमात्मा है - ऐसा जानो और अन्य कुछ भी विकल्प मत करो, बस ।
( दूहा - २३ ) सुद्ध - पएसहँ पूरियउ, लोयायास- पमाणु । सो अप्पा अणुदिणु मुहु, पावहु लहु णिव्वाणु ।।
( हरिगीत ) परिमाण लोकाकाश के जिसके प्रदेश असंख्य हैं। बस उसे जाने आतमा निर्वाण पावे शीघ्र ही ।।
हे योगी ! शुद्ध-प्रदेशों से परिपूर्ण लोकाकाश-प्रमाण आत्मा की
नित्य श्रद्धा करो, ताकि शीघ्र निर्वाण प्राप्त हो ।
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जोगसारु ( योगसार )
( दूहा - २४ ) णिच्छइँ लोय - पमाणु मुणि, ववहारें सुसरीरु । एहउ अप्प - सहाउ मुणि, लहु पावहि भव - तीरु ।। ( हरिगीत )
व्यवहार देहप्रमाण अर परमार्थ लोकप्रमाण है । जो जानते इस भाँति वे निर्वाण पावें शीघ्र ही ।। योगी ! इस आत्मा का स्वभाव निश्चय से लोकाकाश-प्रमाण
है और व्यवहार से स्व-शरीर - प्रमाण है। तुम इसको जानो, ताकि शीघ्र संसार - सागर का किनारा प्राप्त हो ।
( दूहा - २५ )
चउरासी लक्खहिँ फिरिङ, कालु अणाइ अणंतु । पर सम्मत्तु ण ल जिय, एहउ जाणि णिभंतु ।। ( हरिगीत )
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योनि लाख चुरासि में बीता अनन्ता काल है ।
पाया नहीं सम्यक्त्व फिर भी बात यह निर्भ्रान्त है ।।
अहो ! इस जीव ने अनादि-अनन्त काल से चौरासी लाख योनियों में परिभ्रमण किया है और सब कुछ प्राप्त किया है, परन्तु निश्चित समझो कि कभी सम्यक्त्व को प्राप्त नहीं किया ।
( दूहा - २६ )
सुद्ध सचेणु बुद्ध जिणु, केवल - णाण - सहाउ । सो अप्पा अणुदिणु मुणहु, जइ चाहहु सिव-लाहु ।। ( हरिगीत )
यदि चाहते हो मुक्त होना चेतनामय शुद्ध जिन ।
अर बुद्ध केवलज्ञानमय निज आतमा को जान लो ।।
हे योगी ! यह आत्मा शुद्ध है, सचेतन है, बुद्ध है, जिन है और केवलज्ञान स्वभावी है। यदि तुम मोक्ष चाहते हो तो इसकी नित्य श्रद्धा करो।