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________________ १६ जोगसारु ( योगसार ) ( दूहा - २१ ) जो जणु सो अप्पा मुणहु, इहु सिद्धंतहँ सारु । इउ जाणेविणु जोइयहो, अण्णु म करहु वियप्पु ॥ ( हरिगीत ) सिद्धान्त का यह सार माया छोड़ योगी जान लो । जिनदेव अर शुद्धातमा में कोई अन्तर है नहीं । हे योगी ! सम्पूर्ण सिद्धान्तों का सार यह है कि जो जिन है वही आत्मा है, अतः तुम इसे जानो और सर्व मायाचार को छोड़ दो। ( दूहा - २२ ) जो परमप्पा सो हिउँ, जो हउँ सो परमप्पु । इउ जाणेविणु जोइया, अण्णु म करहु वियप्पु ।। ( हरिगीत ) है आत्मा परमातमा परमातमा ही आतमा । हे योगिजन ! यह जानकर कोई विकल्प करो नहीं ।। हे योगी ! जो परमात्मा है वही मैं हूँ और जो मैं हूँ वही परमात्मा है - ऐसा जानो और अन्य कुछ भी विकल्प मत करो, बस । ( दूहा - २३ ) सुद्ध - पएसहँ पूरियउ, लोयायास- पमाणु । सो अप्पा अणुदिणु मुहु, पावहु लहु णिव्वाणु ।। ( हरिगीत ) परिमाण लोकाकाश के जिसके प्रदेश असंख्य हैं। बस उसे जाने आतमा निर्वाण पावे शीघ्र ही ।। हे योगी ! शुद्ध-प्रदेशों से परिपूर्ण लोकाकाश-प्रमाण आत्मा की नित्य श्रद्धा करो, ताकि शीघ्र निर्वाण प्राप्त हो । 9 जोगसारु ( योगसार ) ( दूहा - २४ ) णिच्छइँ लोय - पमाणु मुणि, ववहारें सुसरीरु । एहउ अप्प - सहाउ मुणि, लहु पावहि भव - तीरु ।। ( हरिगीत ) व्यवहार देहप्रमाण अर परमार्थ लोकप्रमाण है । जो जानते इस भाँति वे निर्वाण पावें शीघ्र ही ।। योगी ! इस आत्मा का स्वभाव निश्चय से लोकाकाश-प्रमाण है और व्यवहार से स्व-शरीर - प्रमाण है। तुम इसको जानो, ताकि शीघ्र संसार - सागर का किनारा प्राप्त हो । ( दूहा - २५ ) चउरासी लक्खहिँ फिरिङ, कालु अणाइ अणंतु । पर सम्मत्तु ण ल जिय, एहउ जाणि णिभंतु ।। ( हरिगीत ) १७ योनि लाख चुरासि में बीता अनन्ता काल है । पाया नहीं सम्यक्त्व फिर भी बात यह निर्भ्रान्त है ।। अहो ! इस जीव ने अनादि-अनन्त काल से चौरासी लाख योनियों में परिभ्रमण किया है और सब कुछ प्राप्त किया है, परन्तु निश्चित समझो कि कभी सम्यक्त्व को प्राप्त नहीं किया । ( दूहा - २६ ) सुद्ध सचेणु बुद्ध जिणु, केवल - णाण - सहाउ । सो अप्पा अणुदिणु मुणहु, जइ चाहहु सिव-लाहु ।। ( हरिगीत ) यदि चाहते हो मुक्त होना चेतनामय शुद्ध जिन । अर बुद्ध केवलज्ञानमय निज आतमा को जान लो ।। हे योगी ! यह आत्मा शुद्ध है, सचेतन है, बुद्ध है, जिन है और केवलज्ञान स्वभावी है। यदि तुम मोक्ष चाहते हो तो इसकी नित्य श्रद्धा करो।
SR No.008355
Book TitleJogsaru Yogsar
Original Sutra AuthorYogindudev
Author
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2005
Total Pages33
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size129 KB
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