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________________ जोगसारु (योगसार) ६० जोगसारु (योगसार) प्रश्न-५०. सामायिकादि पाँच प्रकार के चारित्र का क्या स्वरूप है? उत्तर - (i) सामायिक - जब यह जीव राग और द्वेष दोनों को छोड़कर समभाव धारण करता है और समस्त जीवों को भी ज्ञानमय ही जानता है, तब उसके सामायिक चारित्र होता है। (ii) छेदोपस्थापना - हिंसादि का त्याग करके आत्मा को आत्मा में ही स्थापित करने का नाम छेदोपस्थापना है। (iii) परिहारविशुद्धि - मिथ्यात्वादि के परिहार (त्याग) से जो सम्यग्दर्शन की शुद्धि होती है उसे परिहारविशुद्धि कहते हैं। (iv) सूक्ष्मसाम्पराय - सूक्ष्म लोभ के भी नष्ट हो जाने पर जो सूक्ष्म (शुद्ध) परिणाम होता है, उसे सूक्ष्मसाम्पराय कहते हैं। (v) यथाख्यात - कषायों के सर्वथा अभाव से आत्मा की पूर्ण शुद्धता का प्रकट होना ही यथाख्यात चारित्र है। (दोहा ९९ से १०५) प्रश्न-५१. 'योगसार' के अन्तिम दोहे में ग्रन्थकार ने क्या भावना प्रकट की है? उत्तर - संसार से भयभीत मैंने – योगीन्दु मुनि ने - आत्मसम्बोधन के लिए एकाग्र मन से इन दोहों की रचना की है। (दोहा १०८) प्रश्न-५२. निम्नलिखित रिक्त स्थानों की पूर्ति कीजिए : (क) जिन्होंने चार घातिया कर्मों को नष्ट करके .......को प्रकट किया है वे अरिहंत जिनेन्द्र हैं। (दोहा २) (ख) जो जीव गृहव्यापार में स्थित होते हुए भी..... को पहिचानते हैं और प्रतिदिन..... का ध्यान करते हैं, वे शीघ्र ही मोक्ष को प्राप्त करते हैं। (दोहा १८) (ग) आत्मा निश्चय से....... प्रमाण है और व्यवहार से........ प्रमाण है। (दोहा २४) (घ) देव तीर्थों और मन्दिरों में नहीं है, अपितु.............रूपी देवालय में ही विराजमान है। (दोहा ४२) (ङ) देव तीर्थों और मन्दिरों में है- ऐसा सब कहते हैं, परन्तु कोई विरला ज्ञानी मानता है कि देव तो.....में ही है। (दोहा ४५) (च) अहो ! आयु गल रही है; पर.......नहीं गल रहा है...... नहीं गल रही है। (दोहा ४९) (छ) अहो ! संसार में सब लोग अपने-अपने..... में फंसे हुए हैं और...... को नहीं जानते हैं। (दोहा ५२) (ज) जो जीव शास्त्रों को पढ़ते हुए भी...... को नहीं जानते हैं, वे भी जड़ ही हैं। (दोहा ५३) (झ) पुद्गल अलग है और .......अलग है। ......को छोड़ो और ....... को ग्रहण करो। (दोहा ५५) (ञ) जितने भी जीव भूतकाल में सिद्ध हुए हैं, भविष्य में होंगे और वर्तमान में हो रहे हैं, वे सब........से ही हो रहे हैं। (दोहा १०७) उत्तर : (क) अनन्तचतुष्टय (ख) हेयाहेय/जिनदेव (ग) लोक/स्वशरीर ___ (घ) देह (ङ) अध्यात्मवेत्ता मुनिराज बोगी दुशा “यहाईकोध्नु खाकीबात है कि जोन्दु जैसे महान् अध्यात्मवेत्ता के जीवन के संबंध में विस्तृत जीर्णन नहीं मिलक्षात्मक ग्रन्थों में भी उनके जीवन तथा स्थान के बारे में कोई उल्लेख नहीं मिलता। उनकी रचनायें उन्हें आध्यात्मिक राज्य के उन्नत सिंहासन पर विराजमान एक शक्तिशाली आत्मा के रूप में चित्रित करती हैं। वे आध्यात्मिक उत्साह के केन्द्र हैं।" - डॉ. ए.एन. उपाध्ये परमात्मप्रकाश की प्रस्तावना, पृष्ठ १२१
SR No.008355
Book TitleJogsaru Yogsar
Original Sutra AuthorYogindudev
Author
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2005
Total Pages33
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size129 KB
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