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जोगसारु (योगसार)
(दोहा ६१) प्रश्न-३९. आत्मा से आत्मा को जानने पर क्या फल प्राप्त होता है? उत्तर - आत्मा से आत्मा को जानने पर कौन-सा फल प्राप्त नहीं होता?
जीव को केवलज्ञान तक हो जाता है और शाश्वत सुख की भी प्राप्ति हो जाती है।
(दोहा ६२) प्रश्न-४०. "पाप को तो सभी लोग पाप कहते हैं, परन्तु कोई विरले ज्ञानी
ऐसा कहते हैं कि पुण्य भी पाप है"- इसका क्या अभिप्राय
जोगसारु (योगसार) अर्थात् परिग्रह । विशेषतः अन्तरंग परिग्रह से रहित) होगा।
(दोहा ७३) प्रश्न-४२. मुनिराज योगीन्दु देव ने 'संन्यास' की परिभाषा क्या बताई है? उत्तर - मुनिराज योगीन्दु देव के अनुसार जो जीव स्व और पर को अच्छी
तरह जान लेता है, वह निःसन्देह पर का त्याग कर देता है। बस, इसी का नाम संन्यास है।
(दोहा ८२) प्रश्न-४३. मुनिराज योगीन्दु देव के अनुसार उत्तम पवित्र तीर्थ कौन-सा
है?
उत्तर - यद्यपि पुण्य पुण्य ही है, पाप नहीं है; पाप पाप ही है, पुण्य नहीं
है; दोनों दो अलग-अलग परिणाम ही हैं, एक नहीं हैं, सर्वथा एक जैसे भी नहीं हैं, क्योंकि दोनों के कारण, रस, स्वभाव, फल आदि में बहुत अन्तर है; तथापि जो विरले ज्ञानी आत्मध्यान में लीन होते हैं, होना चाहते हैं, वे ऐसा कहते हैं कि अरे! पुण्य भी पाप ही है। ज्ञानियों के इस कथन का अभिप्राय हमें यह समझना चाहिए कि पुण्य भी हेय ही है, त्याज्य ही है। 'पुण्य भी पाप ही है'-इस कथन में 'पाप' शब्द का अर्थ हिंसादि रूप पाप नहीं है, अपितु 'हेय' या 'त्याज्य' ही है - यह हमें अच्छी तरह ध्यान में रखना चाहिए। यहाँ यदि ‘पाप को तो सभी पाप कहते हैं, पर पुण्य भी पाप ही है' - इस कथन की अलंकार शास्त्र की दृष्टि से व्याख्या की जाए तो यह कहा जा सकता है कि उक्त कथन में यमक अलंकार का प्रयोग हुआ है, क्योंकि उसमें प्रथम 'पाप' शब्द का अर्थ तो हिंसादिरूप पाप है और बाद में आने वाले 'पाप' शब्दों का अर्थ बुरा, हेय या त्याज्य है।
(दोहा ७१) प्रश्न-४१. यह जीव कब सच्चा निर्ग्रन्थ होगा? उत्तर - यह जीव तभी सच्चा निर्ग्रन्थ होगा, जब इसका मन निर्ग्रन्थ (ग्रन्थ
उत्तर - मुनिराज योगीन्दु देव के अनुसार रत्नत्रय से संयुक्त जीव ही उत्तम
पवित्र तीर्थ है, क्योंकि एक वही मोक्ष का कारण है, अन्य कुछ नहीं।
(दोहा ८३) प्रश्न-४४. 'सम्यग्दृष्टि जीव का दुर्गति-गमन नहीं होता' - इसका क्या
तात्पर्य है? उत्तर - सम्यग्दृष्टि जीव का दुर्गति-गमन नहीं होता - इसका तात्पर्य यह
है कि सम्यग्दृष्टि जीव अगले जन्म में - (क) पृथ्वीकायादि पंचप्रकार की स्थावर पर्याय में नहीं जाता। (ख) द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और असैनी पंचेन्द्रिय भी
नहीं होता। तिर्यञ्च गति में ही नहीं जाता। (ग) नरक गति में भी नहीं जाता, परन्तु यदि सम्यक्त्व होने से
पूर्व नरकायु बंध हुआ हो तो प्रथम नरक में जाता है। (घ) भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देव नहीं होता । केवल
वैमानिक ही हो सकता है। (ङ) मनुष्यगति में भी स्त्री और नपुंसक नहीं होता । मात्र पुरुष ही हो सकता है।
(दोहा ८८) प्रश्न-४५. "जो जीव सर्व व्यवहार को छोड़कर आत्मस्वरूप में रमण
करता है, वह सम्यग्दृष्टि है" - यहाँ 'व्यवहार को छोड़ने'