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जोगसारु (योगसार)
जोगसारु (योगसार)
(दूहा-९३) जो सम-सुक्ख-णिलीणु बुहु, पुण पुण अप्पु मुणेइ। कम्मक्खउ करि सो वि फुड, लहु णिव्वाणु लहेइ ।।
(हरिगीत) लीन समसुख जीव बारम्बार ध्याते आतमा । वे कर्म क्षयकर शीघ्र पावें परमपद परमातमा ।। जो समसुख में लीन ज्ञानी पुनः पुनः आत्मा को जानता है वह शीघ्र ही कर्मों का क्षय करके निर्वाण को प्राप्त करता है।
(दूहा-९४) पुरिसायार-पमाणु जिय, अप्पा एहु पवित्तु । जोइज्जइ गुण-गण-णिलउ, णिम्मल-तेय-फुरंतु ।।
(हरिगीत ) पुरुष के आकार जिय गुणगणनिलय सम सहित है।
यह परमपावन जीव निर्मल तेज से स्फुरित है ।। हे जीव ! यह आत्मा पुरुषाकार है, पवित्र है, गुणों का भण्डार है और निर्मल तेज से स्फुरायमान दिखाई देता है।
(दूहा-९५) जो अप्पा सुद्ध वि मुणइ, असुइ-सरीर-विभिण्णु। सो जाणइ सत्थइँ सयल, सासय-सुक्खहँ लीणु।।
(हरिगीत) इस अशुचि-तन से भिन्न आतमदेव को जो जानता। नित्य सुख में लीन बुध वह सकल जिनश्रुत जानता।।
जो आत्मा को शुद्ध एवं अशुचि शरीर से अत्यन्त भिन्न मानता है, वही सारे शास्त्रों को जानता है और वही शाश्वत सुख में लीन होता है।
(दूहा-९६) जो णवि जाणड अप्प परु, णवि परभाउ चएइ। सो जाणउ सत्थइँ सयल, ण हु सिवसुक्खु लहेइ।।
(हरिगीत) जो स्व-पर को नहीं जानता छोड़े नहीं परभाव को। वह जानकर भी सकल श्रुत शिवसौख्य को ना प्राप्त हो।। जो जीव स्व और पर को नहीं जानता है और परभावों का त्यागभी नहीं करता है, वह भले ही सर्वशास्त्रों को जानता हो, पर मोक्ष-सुख को प्राप्त नहीं करता।
(दूहा-९७) वजिय सयल-वियप्पइँ परम-समाहि लहंति । जं विंदहिं साणंदु क वि सो सिव-सुक्ख भणंति ।।
(हरिगीत ) सब विकल्पों का वमन कर जम जाय परम समाधि में। तब जो अतीन्द्रिय सुख मिले शिवसुख उसे जिनवर कहें।। जीव जब समस्त विकल्पों से रहित होकर परमसमाधि को प्राप्त करते हैं, उस समय उनको जिस आनन्द का अनुभव होता है, उसे मोक्ष-सुख कहते हैं।
(दूहा-९८) जो पिंडत्थु पयत्थु बुह, रूवत्थु वि जिण-उत्तु । रूवातीतु मुणेहि लहु, जिम परु होहि पवित्तु ।।
(हरिगीत) पिण्डस्थ और पदस्थ अर रूपस्थ रूपातीत जो।
शुभ ध्यान जिनवर ने कहे जानो कि परमपवित्र हो।। हे ज्ञानी ! जिनेन्द्र द्वारा कथित पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत ध्यानों को भलीप्रकार समझो, ताकि तुम शीघ्र ही परम पवित्र हो जाओ।