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________________ जोगसारु (योगसार) जोगसारु (योगसार) (दूहा-७५) जो जिण सो हउँ सो जि हउँ, एहउ भाउ णिभंतु । मोक्खहँ कारण जोइया, अण्णु ण तंतु ण मंतु ।। (हरिगीत) जिनदेव जो मैं भी वही इस भाँति मन निर्धान्त हो। है यही शिवमग योगिजन ! ना मंत्र एवं तंत्र है ।। हे योगी ! जो जिन है वही मैं हूँ और जो मैं हँ वही जिन है - ऐसी निःसंदेह भावना करो; क्योंकि यही एक मोक्ष का कारण है। अन्य कोई तन्त्र-मन्त्र आदि मोक्ष का कारण नहीं है। (दूहा-७६) बे ते चउ पंच वि णवह, सत्तहँ छह पंचाहँ । चउगुण-सहियउ सो मुणह, एयइँ लक्खण जाहँ।। (हरिगीत) दो तीन चउ अर पाँच नव अर सात छह अर पाँच फिर । अर चार गुण जिसमें बसें उस आतमा को जानिए।। हे योगी ! दो, तीन, चार, पाँच, नौ, सात, छह, पाँच और चार गुण, इनको आत्मा के लक्षण जानो। (दूहा-७७) बे छंडिवि बे-गुण-सहिउ, जो अप्पाणि वसेइ। जिणु सामिउ एमइँ भणइ, लहु णिव्वाणु लहेइ ।। (हरिगीत ) दो छोड़कर दो गुण सहित परमातमा में जो बसे। शिवपद लहें वे शीघ्र ही - इस भाँति सब जिनवर कहें।। जो जीव दो दोषों को छोड़कर और दो गुणों से सहित होकर आत्मा में निवास करता है, वह शीघ्र ही निर्वाण को प्राप्त करता है - ऐसा जिन स्वामी कहते हैं। (दूहा-७८) तिहिँ रहियउ तिहिँ गुण-सहिउ, जो अप्पाणि वसेड़। सो सासय-सुइ-भायणु वि, जिणवरु एम भणेइ ।। (हरिगीत) तज तीन त्रयगुण सहित निज परमातमा में जो बसे। शिवपद लहें वे शीघ्र ही - इस भाँति सब जिनवर कहें।। जो जीव तीन दोषों से रहित होकर और तीन गुणों से सहित होकर आत्मा में निवास करता है, वह शाश्वत सुख का पात्र होता है - ऐसा जिनवर कहते हैं। (दूहा-७९) चउ-कसाय-सण्णा-रहिउ, चउ-गुण-सहियउवुत्तु । सो अप्पा मुणि जीव तुहुँ, जिम परु होहि पवित्तु ।। (हरिगीत) जो रहित चार कषाय संज्ञा चार गुण से सहित हो। तुम उसे जानो आतमा तो परमपावन हो सको।। हे जीव ! जो चार कषायों व चार संज्ञाओं से रहित है और चार गुणों से सहित हैं, उस आत्मा की श्रद्धा कर, ताकि तू परम-पवित्र हो सके। (दूहा-८०) बे-पंचहँ रहियउ मुणहि, बे-पंचहँ संजुत्तु । बे-पंचहँ जो गुणसहिउ, सो अप्पा णिरु वुत्तु ।। (हरिगीत) जो दश रहित दश सहित एवं दश गुणों से सहित हो। तुम उसे जानो आतमा अर उसी में नित रत रहो।। हे जीव ! जो दस से रहित है, दस से सहित है और दस गुणों से भी सहित है, उसे ही निश्चय से आत्मा कहा गया है। तुम उसकी श्रद्धा करो।
SR No.008355
Book TitleJogsaru Yogsar
Original Sutra AuthorYogindudev
Author
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2005
Total Pages33
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size129 KB
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