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________________ जोगसारु (योगसार) जोगसारु (योगसार) (दूहा-३३) वउ तउ संजमु सीलु जिय, इउ सव्वइँ ववहारु। मोक्खहँ कारणु एक्कु मुणि, जो तइलोयहँ सारु।। (हरिगीत) व्रत शील संयम तप सभी हैं मुक्तिमग व्यवहार से। त्रैलोक्य में जो सार है वह आतमा परमार्थ से ।। हे जीव ! व्रत, तप, संयम एवं शील तो व्यवहार से मोक्ष का कारण है। निश्चय से तो जो तीन लोक का सार है - ऐसा एक आत्मा ही मोक्ष का कारण है। (दूहा-३४) अप्पा अप्पइँ जो मुणइ, जो परभाउ चएइ । सो पावइ सिवपुरि-गमणु, जिणवरु एम भणेइ ।। (हरिगीत ) परभाव को परित्याग कर अपनत्व आतम में करे । जिनदेव ने ऐसा कहा शिवपुर गमन वह नर करे ।। जिनेन्द्र देव कहते हैं कि जो जीव आत्मा से आत्मा को जानता है और परभाव को छोड़ देता है, वही शिवपुरी को जाता है। (दूहा-३५) छह दव्वइँ जे जिण-कहिय, णव पयत्थ जे तत्त । विवहारेण य उत्तिया, ते जाणियहि पयत्त ।। (हरिगीत) व्यवहार से जिनदेव ने छह द्रव्य तत्त्वारथ कहे। हे भव्यजन ! तुम विधीपूर्वक उन्हें भी पहिचान लो।। हे भाई ! जिनेन्द्र देव ने जो छह द्रव्य, सात तत्त्व और नौ पदार्थ कहे हैं, वे सब व्यवहारनय से कहे हैं। तुम उनको प्रयत्न करके जानो। (दूहा-३६) सव्व अचेयण जाणि जिय, एक्क सचेयणु सारु। जो जाणेविणु परम-मुणि, लहु पावइ भवपारु॥ (हरिगीत) है आतमा बस एक चेतन आतमा ही सार है। बस और सब हैं अचेतन यह जान मुनिजन शिव लहैं।। जगत के सर्व पदार्थ अचेतन हैं । मात्र एक जीव ही सचेतन है और वही सार अर्थात् श्रेष्ठ है। उसे जानकर परममुनि शीघ्र संसार-सागर से पार हो जाते हैं। (दूहा-३७) जइ णिम्मलु अप्पा मुणहि, छंडिवि सहु ववहारु। जिण-सामिउ एमइ भणइ, लहु पावइ भवपारु।। (हरिगीत) जिनदेव ने ऐसा कहा निज आतमा को जान लो। यदि छोड़कर व्यवहार सब तो शीघ्र ही भवपार हो।। हे योगी ! यदि तू सर्व व्यवहार को छोड़कर एक निर्मल आत्मा को ही जाने तो शीघ्र संसार से पार हो जाए - ऐसा जिनस्वामी कहते हैं। ( सोरठा-३८) जीवाजीवहँ भेउ, जो जाणइ तिं जाणियउ। मोक्खहँ कारण एउ, भणइ जोइ जोइहिँ भणिउँ।। (हरिगीत) जो जीव और अजीव के गुणभेद को पहिचानता। है वही ज्ञानी जीव वह ही मोक्ष का कारण कहा।। हे योगी! जो जीव और अजीव के भेद को जानता है, वही वास्तव में सब कुछ जानता है। तथा जीव और अजीव के भेदज्ञान को ही योगियों ने मोक्ष का कारण कहा है।
SR No.008355
Book TitleJogsaru Yogsar
Original Sutra AuthorYogindudev
Author
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2005
Total Pages33
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size129 KB
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