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________________ | घननं घननं घनघंट बजै, दृमदृमं दृमट्टंम मिरदंग सजै । गगनांगन - गर्भगता सुगता, ततता ततता अतता वितता ।। धृगतां धृगतां गति बाजत है, सुरताल रसाल जु छाजत है । सननं सननं सननं नभ में, इकरूप अनेक जु धारि भ्रमें ।। कइ नारि सुबीन बजावत हैं, तुमरो जस उज्ज्वल गावत हैं। करताल विषै करताल धरें, सुरताल विशाल जु नाद करें ।। इन आदि अनेक उछाह भरी, सुर भक्ति करें प्रभुजी तुमरी । तुम ही जग जीवन के पितु हो, तुम ही बिन कारनतैं हितु हो ।। तुम ही सब विघ्नविनाशन हो, तुम ही निज आनन्द भासन हो । तुम ही चितचिंतितदायक हो, जगमाहीं तुम्हीं सब लायक हो ।। तुमरे पन मंगल माहिं सही, जिय उत्तम पुण्य लियो सब ही । हमको तुम्हरी सरनागत है, तुमरे गुन में मन पागत है ।। प्रभु मोहिय आप सदा बसिये, जबलों वसुकर्म नहीं नसिये । तबलों तुम ध्यान हिये वरतों, तबलों श्रुतचिन्तन चित्तरतों । तबलों व्रत चारित चाहत हों, तबलों शुभ भाव सुगाहतु हों ।। तबलों सतसंगति नित्य रहों, तबलों मम संजम चित्त गहों ।। जबलों नहिं नाश करों अरि को, शिवनारि वरों समता धरि को। यह द्यो तबलों हमकों जिनजी, हम जाचतु हैं इतनी सुनजी ।। (घत्तानन्द) श्रीवीर जिनेशा, नमित सुरेशा, नागनरेशा भगति भरा । 'वृन्दावन' ध्यावै, विघन नशावै, वांछित पावैं शर्म वरा ॥ ॐ ह्रीं श्री वर्द्धमानजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये जयमालापूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा । (दोहा) श्री सनमति के जुगलपद, जो पूजें धर प्रीत । 'वृन्दावन' सो चतुर नर, लहैं मुक्ति नवनीत ।। (पुष्पाञ्जलिं क्षिपेत्) १७२ जिनेन्द्र अर्चना 87 श्री महावीर पूजन (डॉ. हुकमचन्दजी भारिल्ल कृत) (स्थापना) जो मोह माया मान मत्सर, मदन मर्दन वीर हैं । जो विपुल विघ्नों बीच में भी, ध्यान धारण धीर हैं ।। जो तरणतारण भव- निवारण, भव-जलधि के तीर हैं। वे वन्दनीय जिनेश, तीर्थंकर स्वयं महावीर हैं ।। ॐ ह्रीं श्री महावीरजिनेन्द्र! अत्र अवतर अवतर संवौषट् । ॐ ह्रीं श्री महावीरजिनेन्द्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः । ॐ ह्रीं श्री महावीरजिनेन्द्र ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् । जिनके गुणों का स्तवन पावन करन अम्लान है। मल-हरन निर्मल करन भागीरथी नीर- समान है ।। संतप्त-मानस शान्त हों जिनके गुणों के गान में । वे वर्द्धमान महान जिन विचरें हमारे ध्यान में ।। ॐ ह्रीं श्री महावीरजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा । लिपटे रहें विषधर तदपि चन्दन विटप निर्विष रहें । त्यों शान्त शीतल ही रहो रिपु विघन कितने ही करें । सन्तप्त. ।। ॐ ह्रीं श्री महावीरजिनेन्द्राय संसारतापविनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा । सुख-ज्ञान-दर्शन - वीर जिन अक्षत समान अखण्ड हैं। हैं शान्त यद्यपि तदपि जो दिनकर समान प्रचण्ड हैं। । सन्तप्त. ।। ॐ ह्रीं श्री महावीरजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा । त्रिभुवनजयी अविजित कुसुमसर सुभट मारन सूर हैं। पर-गन्ध से विरहित तदपि निज-गन्ध से भरपूर हैं । सन्तप्त. ।। ॐ ह्रीं श्री महावीरजिनेन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा । यदि भूख हो तो विविध व्यंजन मिष्ट इष्ट प्रतीत हों । तुम क्षुधा - बाधा रहित जिन! क्यों तुम्हें उनसे प्रीत हो ? । । सन्तप्त. ।। ॐ ह्रीं श्री महावीर जिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा । जिनेन्द्र अर्चना १७३
SR No.008354
Book TitleJinendra Archana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkhil Bansal
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages172
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size552 KB
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