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________________ जय पारस-देवं, सुर-कृत सेवं, वन्दत चरण सुनागपती। करुणा के धारी, पर-उपकारी, शिव-सुखकारी कर्म हती ।। ॐ ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय गर्भजन्मतपोज्ञाननिर्वाणपंचकल्याणकप्राप्ताय जयमालापूर्णायँ निर्वपामीति स्वाहा। (रोला) जो पूजै मन लाय, भव्य पारस प्रभु नित ही। ताके दुख सब जाँय, भीति व्यापै नहिं कित ही।। सुख-सम्पत्ति अधिकाय, पुत्र-मित्रादिक सारे । अनुक्रम सों शिव लहे, 'रतन' इम कहें पुकारे ।। (पुष्पाञ्जलिं क्षिपेत्) भजन चाह मुझे है दर्शन की, प्रभु के चरण स्पर्शन की ।।टेक ।। वीतराग-छवि प्यारी है, जगजन को मनहारी है। मूरत मेरे भगवन की, वीर के चरण स्पर्शन की।।१।। कुछ भी नहीं शृंगार किये, हाथ नहीं हथियार लिये। फौज भगाई कर्मन की, प्रभु के चरण स्पर्शन की ।।२।। समता पाठ पढ़ाती है, ध्यान की याद दिलाती है। नासादृष्टि लखो इनकी, प्रभु के चरण स्पर्शन की ।।३।। हाथ पे हाथ धरे ऐसे, करना कुछ न रहा जैसे। देख दशा पद्मासन की, वीर के चरण स्पर्शन की ।।४।। जो शिव-आनन्द चाहो तुम, इन-सा ध्यान लगाओ तुम। विपत हरे भव-भटकन की, प्रभु के चरण स्पर्शन की।।५।। श्री वर्धमान जिनपूजन (कविवर वृन्दावनदासजी कृत) स्थापना (छन्द मत्तगयन्द) श्रीमत वीर हरै भव पीर भरें सुख सीर अनाकुलताई। केहरि अंक अरीकरदंक नये हरिपंकति मौलि सुआई।। मैं तुमको इत थापतु हों प्रभु भक्ति समेत हिये हरषाई। हे करुणाधनधारक देव! इहाँ अब तिष्ठहु शीघ्रहि आई। ॐ ह्रीं श्रीवर्द्धमानजिनेन्द्र! अत्र अवतर अवतर संवौषट्। ॐ ह्रीं श्रीवर्द्धमानजिनेन्द्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः। ॐ ह्रीं श्रीवर्द्धमानजिनेन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् । (छन्द अष्टपदी) क्षीरोदधि सम शुचि नीर, कंचन ग भरों। प्रभु वेग हरो भवपीर यातें धार करों ।। श्री वीर महा अतिवीर सन्मति-नायक हो। जय वर्द्धमान गुणधीर सन्मति-दायक हो ।। ॐ ह्रीं श्रीवर्द्धमानजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा। मलयागिरि चन्दन सार केसर संग घसों । प्रभु भव आताप निवार पूजत हिय हुलसों ।।श्री. ।। ॐ ह्रीं श्रीवर्द्धमानजिनेन्द्राय भवातापविनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा। तन्दुल सित शशिसम शुद्ध लीनों थार भरी। तसु पुंज धरों अविरुद्ध पावों शिवनगरी ||श्री. ।। ॐ ह्रीं श्रीवर्द्धमानजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा। सुरतरु के सुमन समेत सुमन सुमन प्यारे । सो मनमथ-भंजन हेत पूजों पद थारे ||श्री. ।। ॐ ह्रीं श्रीवर्द्धमानजिनेन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा। रस रज्जत सज्जत सद्य मज्जत थार भरी। पद जज्जत रज्जत अद्य भज्जत भूख अरी ।।श्री. ।। ॐ ह्रीं श्री वर्द्धमानजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा। जिनेन्द्र अर्चना/000000 100 जिनेन्द्र अर्चना 85
SR No.008354
Book TitleJinendra Archana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkhil Bansal
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages172
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size552 KB
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