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स्वाहा।
सदनेवज बहुविधि पकवान, पूर्जी श्रीजिनवर गुणखान । परम गुरु हो, जय जय नाथ परम गुरु हो ।। दरशविशुद्धि भावना भाय, सोलह तीर्थंकर पद-पाय।
परम गुरु हो, जय जय नाथ परम गुरु हो ।। ॐ ह्रीं श्री दर्शनविशुद्ध्यादिषोडशकारणेभ्यः क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दीपक-ज्योति तिमिर छयकार, पूजू श्रीजिन केवलधार।
परम गुरु हो, जय जय नाथ परम गुरु हो ।।दरश. ।। ॐ ह्रीं श्री दर्शनविशुयादिषोडशकारणेभ्यो मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
अगर कपूरगन्ध शुभ खेय, श्री जिनवर आगे महकेय।
परम गुरु हो, जय जय नाथ परम गुरु हो ।।दरश. ।। ॐ ह्रीं श्री दर्शनविशुद्ध्यादिषोडशकारणेभ्यो अष्टकर्मविध्वंसनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
श्रीफल आदि बहुत फलसार पूर्जी जिन वांछित-दातार।
परम गुरु हो, जय जय नाथ परम गुरु हो ।।दरश. ।। ॐ ह्रीं श्री दर्शनविशुद्ध्यादिषोडशकारणेभ्यो मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
जल फल आठोंदरबचढ़ाय, 'द्यानत' वरतकों मनलाय।
परम गुरु हो, जय जय नाथ परम गुरु हो ।।दरश. ।। ॐ ह्रीं श्री दर्शनविशुयादिषोडशकारणेभ्यो नर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
जयमाला
जो संवेग-भाव विसतारे, सुरग-मुकति-पद आप निहारै । दान देय मन हरष विशेखै, इह भव जस पर भव सुख देखै।। जो तप तपै खपै अभिलाषा, चूरै करम-शिखर गुरु भाषा। साधुसमाधि सदा मन लावै, तिहुँ जग भोग भोगि शिव जावै।। निश-दिन वैयावृत्य करैया, सो निहचै भव-नीर तिरैया । जो अरहंत भगति मन आनै, सो जन विषय-कषाय न जानै।। जो आचारज-भगति करै है, सो निर्मल आचार धरै है। बहुश्रुतवन्त-भगति जो करई, सो नर संपूरन श्रुत धरई ।। प्रवचन-भगति करै जो ज्ञाता, लहै ज्ञान परमानन्द-दाता। षट् आवश्यक काल जो साधै, सो ही रत्नत्रय आराधै ।। धरम-प्रभाव करै जे ज्ञानी, तिन शिव-मारग रीति पिछानी।
वत्सल अंग सदा जो ध्यावै, सो तीर्थंकर पदवी पावै ।। ॐ ह्रीं श्री दर्शनविशुद्ध्यादिषोडशकारणेभ्यो जयमालापूर्णाष्य निर्वपामीति स्वाहा।
(दोहा) एही सोलह भावना, सहित धरै व्रत जोय । देव-इन्द्र-नर-वंद्य-पद, 'द्यानत' शिव-पद होय ।।
(पुष्पाञ्जलिं क्षिपेत्)
मैंने तेरे ही भरोसे मैंने तेरे ही भरोसे महावीर, भंवर में नैया डार दई ।।टेक ।। जनम-जनम का मैं दुखियारा, भव-भव में दुख पाया। सारी दुनियाँ से निराश हो, शरण तुम्हारी आया । मैंने. ।।१।। चारों गतियों में भरमाया, कष्ट अनन्तों भोगे। आज मुझे विश्वास हो गया, मेरी भी सुधि लोगे ।।मैंने. ।।२।। नाम तुम्हारा सुनकर आया, मेरे संकट हर लो। आत्मज्ञान का दीपक दे दो, मुझको निज-सम कर लो।।मैंने. ॥३।। बड़े भाग्य से तुमको पाया, अब न कहीं जाऊँगा। मुझे मोक्ष पहुँचा दो स्वामी, फिर न कभी आऊँगा । मैंने. ।।४।।
(दोहा)
षोडश कारण गुण करै, हरै चतुरगति-वास । पाप-पुण्य सब नाशके, ज्ञान-भान परकाश ।।
(चौपाई) दरशविशुद्धि धरे जो कोई, ताको आवागमन न होई। विनय महाधारै जो प्राणी, शिव-वनिता की सखी बखानी।। शील सदा दृढ़ जो नर पालै, सो औरन की आपद टालै।
ज्ञानाभ्यास करै मनमाहीं, ताके मोह-महातम नाहीं ।। १४२०
000000000 जिनेन्द्र अर्चना
जिनेन्द्र अर्चना 100