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________________ (चौपाई) जापै ध्यान सुथिर बन आवै, ताके करमबन्ध कट जावै। तासों शिव-तिय प्रीति बढ़ावै, जो सम्यक्रत्नत्रय ध्यावै ।। ताको चहुँगति के दुःख नाहीं, सो न परे भवसागर माहीं। जनम-जरा-मृत दोष मिटावै, जो सम्यक्रत्नत्रय ध्यावै ।। सोई दशलच्छन को साथै, सो सोलहकारण आराधै। सो परमातमपद उपजावै, जो सम्यक्रत्नत्रय ध्यावै ।। सोई शक्र-चक्रिपद लेई, तीनलोक के सुख विलसेई । सो रागादिक भाव बहावै, जो सम्यक्रत्नत्रय ध्यावै ।। सोई लोकालोक निहारे, परमानन्ददशा विसतारे । आप तिरै और न तिरवावै, जो सम्यक्रत्नत्रय ध्यावै ।। ॐ ह्रीं श्री सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान-सम्यक्चारित्राय समुच्चयजयमाला अनर्घ्यपदप्राप्तये पूर्णायँ निर्वपामीति स्वाहा। (दोहा) एक स्वरूप-प्रकाश-निज, वचन कह्यो नहिं जाय। तीन भेद व्योहार सब, 'द्यानत' को सुखदाय ।। ॐ पुष्पांजलिं क्षिपेत् । सोलहकारण पूजन (पं. द्यानतरायजी कृत) (अडिल्ल) सोलह कारण भाय तीर्थंकर जे भये । हरषे इन्द्र अपार मेरु पै ले गये ।। पूजा करि निज धन्य लख्यो बहु चावसौं । हमहू षोडश कारन भावें भावसौं ।। ॐ ह्रीं श्री दर्शनविशुद्ध्यादिषोडशकारणानि ! अत्र अवतरत अवतरत, संवौषट्, इति आहवाननम् । ॐ ह्रीं श्री दर्शनविशुद्ध्यादिषोडशकारणानि ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः, इति स्थापनम्। ॐ ह्रीं श्री दर्शनविशुद्ध्यादिषोडशकारणानि ! अत्र मम सन्निहितानि भव भव वषट् इति सन्निधिकरणम्। (चौपाई आँचलीबद्ध) कंचन-झारी निरमल नीर, पूजों जिनवर गुण-गम्भीर । परम गुरु हो, जय जय नाथ परम गुरु हो ।। दरशविशुद्धि भावना भाय, सोलह तीर्थंकर-पद-पाय। परम गुरु हो, जय जय नाथ परम गुरु हो ।। ॐ ह्रीं श्री दर्शनविशुद्धि-विनयसम्पन्नता-शीलव्रतेष्वनतिचार-अभीक्ष्णज्ञानोपयोगसंवेग-शक्तितस्त्याग-तपः साधुसमाधि-वैयावृत्यकरण-अर्हद्भक्ति-आचार्यभक्तिबहुश्रुतभक्ति-प्रवचनभक्ति-आवश्यकापरिहाणि-मार्गप्रभावना-प्रवचनवात्सल्येति तीर्थकरत्व-कारणेभ्यो जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा। चन्दन घसौं कपूर मिलाय, पूजौं श्री जिनवर के पाय । परम गुरु हो, जय जय नाथ परम गुरु हो ।।दरश. ।। ॐ ह्रीं श्री दर्शनविशुद्ध्यादिषोडशकारणेभ्यः संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा। तन्दुल धवल सुगन्ध अनूप, पूजौं जिनवर तिहुँजग-भूप। परम गुरु हो, जय जय नाथ परम गुरु हो।।दरश. ।। ॐ ह्रीं श्री दर्शनविशुद्ध्यादिषोडशकारणेभ्यो अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा । फूल सुगन्ध मधुप-गुंजार, पूजौं जिनवर जग-आधार । परम गुरु हो, जय जय नाथ परम गुरु हो ।।दरश. ।। ॐ ह्रीं श्री दर्शनविशुद्ध्यादिषोडशकारणेभ्यः कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति जिनेन्द्र अर्चना/1000000000000000000000 श्री अरहंत छबि लखि हिरदै, आनन्द अनुपम छाया है।।टेक. ।। वीतराग मुद्रा हितकारी, आसन पद्म लगाया है। दृष्टि नासिका अग्रधार मनु, ध्यान महान बढ़ाया है।।१।। रूप सुधाकर अंजलि भरभर, पीवत अति सुख पाया है। तारन-तरन जगत हितकारी, विरद सचीपति गाया है।।२।। तुम मुख-चन्द्र नयन के मारग, हिरदै माहिं समाया है। भ्रम तम दुःख आतापनस्योसब, सुख सागर बहि आया है।।३।। प्रकटी उर सन्तोष चन्द्रिका, निज स्वरूप दर्शाया है। धन्य-धन्य तुम छवि 'जिनेश्वर', देखत ही सुख पाया है।।४।। १४०८1000 जिनेन्द्र अर्चना 71 जिनेन्द्र अर्चना
SR No.008354
Book TitleJinendra Archana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkhil Bansal
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages172
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size552 KB
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