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(चौपाई मिश्रित गीता) सम्यक् दरशन-रतन गहीजे, जिन-वच में सन्देह न कीजै। इह-भव-विभव-चाह दुःखदानी, पर-भव भोग चहै मत प्रानी।। प्रानी गिलान न करि अशुचि लखि, धरम गुरु प्रभु परखिये। पर-दोष ढकिये धरम डिगते को, सुथिर कर हरखिये ।। चहुँ संघ को वात्सल्य कीजै, धरम की परभावना।
गुन आठसों गुन आठ लहिकैं, इहाँ फेर न आवना ।। ॐ ह्रीं श्री अष्टांगसहितपंचविंशतिदोषरहितसम्यग्दर्शनाय जयमालापूर्णाऱ्या नि. स्वाहा।
नेवज विविध प्रकार, छुधा हरै थिरता करै ।
सम्यग्ज्ञान विचार, आठ भेद पूजौं सदा ।। ॐ ह्रीं श्री अष्टविधसम्यग्ज्ञानाय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
दीप-जोति तम-हार, घट पट परकाशै महा।
सम्यग्ज्ञान विचार, आठ भेद पूजौं सदा ।। ॐ ह्रीं श्री अष्टविधसम्यग्ज्ञानाय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
धूप घ्रान-सुखकार, रोग विघन जड़ता हरै।
सम्यग्ज्ञान विचार, आठ भेद पूजौं सदा ।। ॐ ह्रीं श्री अष्टविधसम्यग्ज्ञानाय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
श्रीफल आदि विथार, निहचै सुर-शिव-फल करै।
सम्यग्ज्ञान विचार, आठ भेद पूजौं सदा ।। ॐ ह्रीं श्री अष्टविधसम्यग्ज्ञानाय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
जल गन्धाक्षत चारु, दीप धूप फल-फूल चरु ।
सम्यग्ज्ञान विचार, आठ भेद पूजौं सदा ।। ॐ ह्रीं श्री अष्टविधसम्यग्ज्ञानाय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
सम्यग्ज्ञान पूजन
(दोहा) पंच भेद जाके प्रकट, ज्ञेय-प्रकाशन भान ।
मोह-तपन-हर-चन्द्रमा, सोई सम्यग्ज्ञान ।। ॐ ह्रीं श्री अष्टविधसम्यग्ज्ञान ! अत्र अवतर अवतर, संवौषट्, इति आह्वाननम् । ॐ ह्रीं श्री अष्टविधसम्यग्ज्ञान! अत्र तिष्ठ तिष्ठ, ठःठः, इति स्थापनम्। ॐ ह्रीं श्री अष्टविधसम्यग्ज्ञान ! अत्र मम सन्निहितो, भव-भव वषट्, इति सन्निधिकरणम् ।
(सोरठा) नीर सुगन्ध अपार, तृषा हरै मल छय करै।
सम्यग्ज्ञान विचार, आठ भेद पूजौं सदा ।। ॐ ह्रीं श्री अष्टविधसम्यग्ज्ञानाय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
जल केसर घनसार, ताप हरै शीतल करै ।
सम्यग्ज्ञान विचार, आठ भेद पूजौं सदा ।। ॐ ह्रीं श्री अष्टविधसम्यग्ज्ञानाय भवातापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
अछत अनूप निहार, दारिद नाशै सुख भरै ।
सम्यग्ज्ञान विचार, आठ भेद पूजौं सदा ।। ॐ ह्रीं श्री अष्टविधसम्यग्ज्ञानाय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा।
पहुप सुवास उदार, खेद हरै मन शुचि करै ।
सम्यग्ज्ञान विचार, आठ भेद पूजौं सदा ।। ॐ ह्रीं श्री अष्टविधसम्यग्ज्ञानाय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
जिनेन्द्र अर्चना
जयमाला
(दोहा) आप आप जानैं नियत, ग्रन्थ-पठन व्यवहार । संशय-विभ्रम-मोह बिन, अष्ट अंग गुनकार ।।
(चौपाई मिश्रित गीता) सम्यग्ज्ञान-रतन मन भाया, आगम तीजा नैन बताया। अच्छर शुद्ध अर्थ पहिचानो, अक्षर अरथ उभय संग जानो।। जानो सुकाल-पठन जिनागम, नाम गुरु न छिपाइए। तप रीति गहि बहु मौन देकैं, विनय-गुन चित लाइए।। ये आठ भेद करम उछेदक, ज्ञान-दर्पन देखना।
इस ज्ञान ही सों भरत सीझा, और सब पट पेखना ।। ॐ ह्रीं श्री अष्टविधसम्यग्ज्ञानाय अनर्घ्यपदप्राप्तये जयमालापूर्णाऱ्या निवपामीति स्वाहा। जिनेन्द्र अर्चना
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