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________________ (चौपाई) उत्तम छिमा जहाँ मन होई, अन्तर-बाहिर शत्रु न कोई। उत्तम मार्दव विनय प्रकासे, नाना भेद ज्ञान सब भासे।। उत्तम आर्जव कपट मिटावे, दुरगति त्यागि सुगति उपजावे। उत्तम शौच लोभ-परिहारी, सन्तोषी गुण-रतन भण्डारी ।। उत्तम सत्य-वचन मुख बोले, सो प्रानी संसार न डोले। उत्तम संजम पाले ज्ञाता, नर-भव सफल करै, ले साता ।। उत्तम तप निरवांछित पाले, सो नर करम-शत्रु को टाले। उत्तम त्याग करे जो कोई, भोगभूमि-सुर-शिवसुख होई ।। उत्तम आकिंचन व्रत धारे, परम समाधि दशा विसतारे । उत्तम ब्रह्मचर्य मन लावे, नर-सुर सहित मुकति-फल पावे।। ॐ ह्रीं श्री उत्तमक्षमामार्दवार्जवशौचसत्यसंयमतपस्त्यागाकिंचन्यब्रह्मचर्येति दशलक्षणधर्माय जयमालापूर्णाऱ्या निर्वपामीति स्वाहा। (दोहा) करै करम की निरजरा, भव पींजरा विनाशि। अजर अमर पद को लहैं, 'द्यानत' सुख की राशि।। (पुष्पाञ्जलिं क्षिपेत् ) सम्यक् रत्नत्रयधर्म पूजन (पं. द्यानतरायजी कृत) (दोहा) चहुँगति-फनि-विष-हरन-मणि, दुख-पावक-जल-धार। शिव-सुख-सुधा-सरोवरी, सम्यक्-त्रयी निहार ।। ॐह्रीं श्री सम्यक्ररत्नत्रयधर्म! अत्र अवतर अवतर संवौषट् । ॐ ह्रीं श्री सम्यक्रत्नत्रयधर्म ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः । ॐ ह्रीं श्री सम्यक्रनत्रयधर्म ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् । (अष्टक-सोरठा) क्षीरोदधि उनहार, उज्ज्वल जल अति सोहनो। जनम-रोग निरवार, सम्यक् रत्नत्रय भनँ ।। ॐ ह्रीं श्री सम्यक्रत्नत्रयाय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं नि. स्वाहा । चन्दन केशर गारि, परिमल-महा-सुगन्ध-मय । जनम-रोग निरवार, सम्यक् रत्नत्रय भनँ ।। ॐ ह्रीं श्री सम्यक्रत्नत्रयाय भवातापविनाशनाय चंदनं नि. स्वाहा। तन्दुल अमल चितार, वासमती-सुखदास के। जनम-रोग निरवार, सम्यक् रत्नत्रय भजूं ।। ॐ ह्रीं श्री सम्यक्रत्नत्रयाय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् नि. स्वाहा। महकैं फूल अपार, अलि गुंजैं ज्यों थुति करें । जनम-रोग निरवार, सम्यक् रत्नत्रय भनँ ।। ॐ ह्रीं श्री सम्यक्रत्नत्रयाय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं नि. स्वाहा। लाडू बहु विस्तार, चीकन मिष्ट सुगन्धयुत । जनम-रोग निरवार, सम्यक् रत्नत्रय भजूं ।। ॐ ह्रीं श्री सम्यक्रत्नत्रयाय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं नि. स्वाहा। दीप-रतनमय सार, जोत प्रकाशै जगत में । जनम-रोग निरवार, सम्यक् रत्नत्रय भजूं ।। ॐ ह्रीं श्री सम्यक्रत्नत्रयाय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं नि. स्वाहा । जिनेन्द्र अर्चना/10000 देखो जी आदीश्वर स्वामी, कैसा ध्यान लगाया है। कर ऊपर कर सुभग विराजै, आसन थिर ठहराया है।।टेक. ।। जगत विभूति भूति सम तजकर, निजानन्द पद ध्याया है। सुरभित श्वासा आशा वासा, नासा दृष्टि सुहाया है।।१।। कंचन वरन चले मन रंच न सुर-गिरि ज्यों थिर थाया है। जास पास अहि मोर मृगी हरि, जाति विरोध नशाया है।।२।। शुध-उपयोग हुताशन में जिन, वसुविधिसमिधजलाया है। श्यामलि अलकावलि सिर सोहे, मानो धुआँ उड़ाया है।।३।। जीवन-मरन अलाभ-लाभ जिन सबको नाश बताया है। सुर नर नाग नमहिं पद जाके "दौल" तास जस गाया है।।४।। 100 जिनेन्द्र अर्चना 67
SR No.008354
Book TitleJinendra Archana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkhil Bansal
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages172
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size552 KB
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