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बाति कपूर सुधार, दीपक-ज्योति सुहावनी ।
भव-आताप निवार, दस-लच्छन पूजौं सदा ।। ॐ ह्रीं श्री उत्तमक्षमादिदशलक्षणधर्माय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं नि. स्वाहा।
अगर धूप विस्तार, फैले सर्व सुगन्धता।
भव-आताप निवार, दस-लच्छन पूजौं सदा ।। ॐ ह्रीं श्री उत्तमक्षमादिदशलक्षणधर्माय अष्टकर्मदहनाय धूपं नि. स्वाहा।
फल की जाति अपार, घ्रान-नयन-मन-मोहने ।
भव-आताप निवार, दस-लच्छन पूजौं सदा ।। ॐ ह्रीं श्री उत्तमक्षमादिदशलक्षणधर्माय मोक्षफलप्राप्तये फलं नि. स्वाहा।
आठों दरब सँवार, 'द्यानत' अधिक उछाहसौं ।
भव-आताप निवार, दस-लच्छन पूजौं सदा ।। ॐ ह्रीं श्री उत्तमक्षमादिदशलक्षणधर्माय अनर्घ्यपदप्राप्तये अयं नि. स्वाहा।
अंग-अर्घ्य
(सोरठा) पीडै दुष्ट अनेक, बाँध मार बहुविधि करें।
धरिये छिमा विवेक, कोप न कीजै पीतमा ।। उत्तम छिमा गहो रे भाई, इह-भव जस, पर भव सुखदाई। गाली सुनि मन खेद न आनो, गुन को औगुन कहै अयानो।। कहि है अयानो वस्तु छीनै, बाँध मार बहुविधि करै । घर नै निकारै तन विदारै, वैर जो न तहाँ धरै ।। ते करम पूरब किये खोटे, सहै क्यों नहिं जीयरा। अति क्रोध-अगनि बुझाय प्रानी, साम्य-जल ले सीयरा ।।
ॐ ह्रीं श्री उत्तमक्षमाधर्मागाय अयं निर्वपामीति स्वाहा। मान महाविषरूप, करहि नीच-गति जगत में।
कोमल सुधा अनूप, सुख पावै प्रानी सदा ।। उत्तम मार्दव गुन मन-माना, मान करन को कौन ठिकाना । बस्यो निगोद माहिं तैं आया, दमरी रूँकन भाग बिकाया ।।
रूँकन बिकाया भाग वश , देव इक-इन्द्री भया । उत्तम मुआ चाण्डाल हवा, भूप कीड़ों में गया ।। जीतव्य जोवन धन गुमान, कहा करै जल-बुदबुदा । करि विनय बहु-गुन बड़े जन की, ज्ञान का पावै उदा ।।
ॐ ह्रीं श्री उत्तममार्दवधर्मागाय अयं निर्वपामीति स्वाहा। कपट न कीजै कोय, चोरन के पुर ना बसै।
सरल सुभावी होय, ताके घर बहु-सम्पदा ।। उत्तम आर्जव रीति बखानी, रंचक दगा बहुत दुखदानी । मन में होय सो वचन उचरिये, वचन होय सो तन सौं करिये।। करिये सरल तिहुँ जोग अपने देख निरमल आरसी। मुख करै जैसा लखै तैसा, कपट-प्रीति अँगार-सी ।। नहिं लहै लछमी अधिक छल करि, करम-बन्ध विशेषता। भय त्यागि दूध बिलाव पीवै, आपदा नहिं देखता ।।
ॐ ह्रीं श्री उत्तम-आर्जवधर्माङ्गाय अयं निर्वपामीति स्वाहा। धरि हिरदै सन्तोष, करह तपस्या देह सों।
शौच सदा निर्दोष, धरम बड़ो संसार में ।। उत्तम शौच सर्व जग जाना, लोभ पाप को बाप बखाना । आशा-पास महा दुखदानी, सुख पावै सन्तोषी प्रानी ।। प्रानी सदा शुचि शील जप तप, ज्ञान ध्यान प्रभावतें । नित गंग जमुन समुद्र न्हाये, अशुचि-दोष सुभावतें ।। ऊपर अमल मल भो भीतर, कौन विधि घट शुचि कहै। बहु देह मैली सुगुन-थैली, शौच-गुन साधू लहै ।।
ॐ ह्रीं श्री उत्तमशौचधर्माङ्गाय अयं निर्वपामीति स्वाहा। कठिन वचन मति बोल, पर-निन्दा अरु झूठ तज।
साँच जवाहर खोल, सतवादी जग में सुखी ।। उत्तम सत्य-बरत पालीजै, पर-विश्वासघात नहिं कीजै । साँचे-झूठे मानुष देखो, आपन पूत स्वपास न पेखो ।। पेखो तिहायत पुरुष साँचे को दरब सब दीजिये।
मुनिराज-श्रावक की प्रतिष्ठा, साँच गुण लख लीजिये ।। जिनेन्द्र अर्चना
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1000 जिनेन्द्र अर्चना