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________________ (पद्धरि) हे ज्ञानस्वभावी सीमंधर! तुम हो असीम आनंदरूप । अपनी सीमा में सीमित हो, फिर भी हो तुम त्रैलोक्य भूप ।।३।। मोहान्धकार के नाश हेतु, तुम ही हो दिनकर अति प्रचंड। हो स्वयं अखंडित कर्म शत्रु को, किया आपने खंड-खंड।।४।। गृहवास राग की आग त्याग, धारा तुमने मुनिपद महान। आतमस्वभाव साधन द्वारा, पाया तुमने परिपूर्ण ज्ञान ।।५।। तुम दर्शन ज्ञान दिवाकर हो, वीरज मंडित आनंदकंद। तुम हुए स्वयं में स्वयं पूर्ण, तुम ही हो सच्चे पूर्णचन्द ।।६।। पूरब विदेह में हे जिनवर! हो आप आज भी विद्यमान । हो रहा दिव्य उपदेश, भव्य पा रहे नित्य अध्यात्म ज्ञान ।।७।। श्री कुन्दकुन्द आचार्यदेव को, मिला आपसे दिव्य ज्ञान । आत्मानुभूति से कर प्रमाण, पाया उनने आनन्द महान ।।८।। पाया था उनने समयसार, अपनाया उनने समयसार । समझाया उनने समयसार, हो गये स्वयं वे समयसार ।।९।। दे गये हमें वे समयसार, गा रहे आज हम समयसार । है समयसार बस एक सार, है समयसार बिन सब असार ।।१०।। मैं हूँ स्वभाव से समयसार, परिणति हो जाये समयसार। है यही चाह, है यही राह, जीवन हो जाये समयसार ।।११।। ॐ ह्रीं श्री सीमंधरजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये जयमालामहायं निर्वपामीति स्वाहा। (सोरठा) समयसार है सार, और सार कुछ है नहीं। महिमा अपरम्पार, समयसारमय आपकी ।।१२।। (पुष्पाञ्जलिं क्षिपेत्) दशलक्षण धर्म पूजन (पं. द्यानतरायजी कृत) (अनुष्टुप) स्थापना (संस्कृत) उत्तमक्षान्तिकाद्यन्त-ब्रह्मचर्य-सुलक्षणम् । स्थापय दशधा धर्ममुत्तमं जिनभाषितम् ।। (अडिल्ल) स्थापना (हिन्दी) उत्तम क्षमा मारदव आरजव भाव हैं, सत्य शौच संयम तप त्याग उपाव हैं। आकिंचन ब्रह्मचर्य धरम दश सार हैं, चहँगति-दुखतें काढ़ि मुकति करतार हैं ।। ॐ ह्रीं श्री उत्तमक्षमादिदशलक्षणधर्म ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् इति आह्वाननम् । ॐ ह्रीं श्री उत्तमक्षमादिदशलक्षणधर्म ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम् । ॐह्रीं श्री उत्तमक्षमादिदशलक्षणधर्म! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधिकरणम् । (सोरठा) हेमाचल की धार, मुनि-चित सम शीतल सुरभि । भव-आताप निवार, दस-लच्छन पूजौं सदा ।। ॐ ह्रीं श्री उत्तमक्षमामार्दवार्जवशौचसत्यसंयमतपस्त्यागाकिंचन्यब्रह्मचर्येति दशलक्षणधर्माय जन्म-जरा-मृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा। चन्दन केशर गार, होय सुवास दशों दिशा। भव-आताप निवार, दस-लच्छन पूजौं सदा ।। ॐ ह्रीं श्री उत्तमक्षमादिदशलक्षणधर्माय संसारतापविनाशनाय चंदनं नि. स्वाहा। अमल अखण्डित सार, तन्दुल चन्द्र समान शुभ । भव-आताप निवार, दस-लच्छन पूजौं सदा ।। ॐ ह्रीं श्री उत्तमक्षमादिदशलक्षणधर्माय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् नि. स्वाहा। फूल अनेक प्रकार, महकें ऊरध-लोकलों। भव-आताप निवार, दस-लच्छन पूजौं सदा ।। ॐ ह्रीं श्री उत्तमक्षमादिदशलक्षणधर्माय कामबाणविनाशनाय पुष्पं नि. स्वाहा। नेवज विविध निहार, उत्तम षट्-रस-संजुगत । भव-आताप निवार, दस-लच्छन पूजौं सदा ।। ॐ ह्रीं श्री उत्तमक्षमादिदशलक्षणधर्माय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं नि. स्वाहा। जिनेन्द्र अर्चना 000000000 100 जिनेन्द्र अर्चना
SR No.008354
Book TitleJinendra Archana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkhil Bansal
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages172
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size552 KB
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