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भव-भव में सौभाग्य मिले, गुरुपद पूजूं ध्याऊँ । वरूँ शिवनारी... नारी, वरूँ शिवनारी ।।४।।
जो बीस आठ गुण धरते, मन-वचन-काय वश करते। बाईस परीषह जीत जितेन्द्रिय ध्याऊँ ध्याऊँ रे ।।१।। जिन कनक-कामिनी त्यागी, मन ममता त्याग विरागी। मैं स्वपर भेद-विज्ञानी से सुन पाऊँ पाऊँ रे ।।२।। कुंदकुंद प्रभुजी विचरते, तीर्थंकर-सम आचरते। ऐसे मुनि मार्ग प्रणेता को, मैं ध्याऊँ ध्याऊँ रे ।।३।। जो हित-मित वचन उचरते, धर्मामृत वर्षा करते । 'सौभाग्य' तरण-तारण पर बलि-बलि जाऊँ जाऊँ रे।।४।।
नित उठ ध्याऊँ, गुण गाऊँ, परम दिगम्बर साधु । महाव्रतधारी धारी...धारी महाव्रत धारी ।।टेक ।। राग-द्वेष नहिं लेश जिन्हों के मन में है..तन में है। कनक-कामिनी मोह-काम नहिं तन में है...मन में है।। परिग्रह रहित निरारम्भी, ज्ञानी वा ध्यानी तपसी। नमो हितकारी...कारी, नमो हितकारी ।।१।। शीतकाल सरिता के तट पर, जो रहते..जो रहते । ग्रीष्म ऋतु गिरिराज शिखर चढ़, अघ दहते...अघ दहते।। तरु-तल रहकर वर्षा में, विचलित न होते लख भय । वन अँधियारी...भारी, वन अँधियारी ।।२।। कंचन-काँच मसान-महल-सम, जिनके हैं...जिनके हैं। अरि अपमान मान मित्र-सम, जिनके हैं..जिनके हैं।। समदर्शी समता धारी, नग्न दिगम्बर मुनिवर । भव जल तारी...तारी, भव जल तारी ।।३ ।। ऐसे परम तपोनिधि जहाँ-जहाँ, जाते हैं...जाते हैं।
परम शांति सुख लाभ जीव सब, पाते हैं...पाते हैं ।। ३३२८0000000
10. जिनेन्द्र अर्चना
हे परम दिगम्बर यति, महागुण व्रती, करो निस्तारा । नहिं तुम बिन हितू हमारा ।। तुम बीस परीषह जीत धरम रखवारा, नहिं तुम बिन हितूहमारा । टेक।। तुम आतम ज्ञानी ध्यानी हो, प्रभु वीतराग वनवासी हो। है रत्नत्रय गुण मण्डित हृदय तुम्हारा, नहिं तुम बिन हितू हमारा ।।१।। तुम क्षमा शांति समता सागर, हो विश्व पूज्य नर रत्नाकर । है हित-मित सद्उपदेश तुम्हारा प्यारा, नहिं तुम बिन हितूहमारा ।।२।। तुम धर्म मूर्ति हो समदर्शी, हो भव्य जीव मन आकर्षी। है निर्विकार निर्दोष स्वरूप तुम्हारा, नहिं तुम बिन हितू हमारा ।।३।। है यही अवस्था एक सार, जो पहुँचाती है मोक्ष द्वार । 'सौभाग्य' आप-सा बाना होय हमारा, नहिं तुम बिन हितूहमारा ।।४।।
(१३) है परम-दिगम्बर मुद्रा जिनकी, वन-वन करें बसेरा। मैं उन चरणों का चेरा, हो वन्दन उनको मेरा ।। शाश्वत सुखमय चैतन्य-सदन में, रहता जिनका डेरा। मैं उन चरणों का चेरा, हो वन्दन उनको मेरा ।।टेक ।। जहँ क्षमा मार्दव आर्जव सत् शुचिता की सौरभ महके। संयम तप त्याग अकिंचन स्वर परिणति में प्रतिपल चहके। है ब्रह्मचर्य की गरिमा से, आराध्य बने जो मेरा ।।१।। अन्तर-बाहर द्वादश तप से, जो कर्म-कालिमा दहते । उपसर्ग परीषह-कृत बाधा, जो साम्य-भाव से सहते।
जो शुद्ध-अतीन्द्रिय आनन्द-रस का, लेते स्वाद घनेरा ।।२।। जिनेन्द्र अर्चना 10000
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