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________________ नित्य-अनित्य अरु एक अनेक, वस्तुकथंचित् भेद-अभेद। अनेकांतरूपा बखानी, अमर तेरी जग में कहानी ।।२।। भाव शुभाशुभ बंधस्वरूप, शुद्ध-चिदानन्दमय मुक्तिरूप। मारग दिखाती है वाणी, अमर तेरी जग में कहानी ।।३।। चिदानंद चैतन्य आनन्द धाम, ज्ञानस्वभावी निजातम राम। स्वाश्रय से मुक्ति बखानी, अमर तेरी जग में कहानी ।।४।। सुनकर वाणी जिनवर की, महारे हर्ष हिये न समाय जी ।।टेक ।। काल अनादि की तपन बुझानी, निज निधि मिली अथाह जी ।।१।। संशय, भ्रम और विपर्यय नाशा, सम्यक् बुद्धि उपजाय जी ।।२।। नर-भव सफल भयो अब मेरो, 'बुधजन' भेटत पाय जी ।।३।। समाधानरूपा अनूपा अक्षुद्रा, अनेकान्तधा स्याद्वादांक मुद्रा। त्रिधा सप्तधा द्वादशाङ्गी बखानी, नमो देवि वागेश्वरी जैनवाणी।।४।। अकोपा अमाना अदभा अलोभा, श्रुतज्ञानरूपी मतिज्ञान शोभा। महापावनी भावना भव्य मानी, नमो देवि वागेश्वरी जैनवाणी।।५।। अतीता अजीता सदा निर्विकारा, विषैवाटिकाखंडिनी खड्गधारा । पुरापापविक्षेप कर्ता कृपाणी, नमो देवि वागेश्वरी जैनवाणी ।।६।। अगाधा अबाधा निरध्रा निराशा, अनन्ता अनादीश्वरी कर्मनाशा। निशंका निरंका चिदंका भवानी, नमो देवि वागेश्वरी जैनवाणी ।।७।। अशोका मुदेका विवेका विधानी, जगज्जन्तुमित्रा विचित्रावसानी। समस्तावलोका निरस्ता निदानी, नमो देवि वागेश्वरी जैनवाणी ।।८।। जे आगम रुचिधरै, जे प्रतीति मन माहिं आनहिं । अवधारहिं गे पुरुष, समर्थ पद अर्थ आनहिं ।। जे हित हेतु 'बनारसी', देहिं धर्म उपदेश । ते सब पावहिं परम सुख, तज संसार कलेश ।। मुख ओंकार धुनि सुनि अर्थ गणधर विचारै । रचि-रचि आगम उपदेसै भविक जीव संशय निवारै।। सो सत्यारथ शारदा, तासु भक्ति उर आन । छंद भुजंगप्रयात”, अष्टक कहौं बखान ।। (भुजंगप्रयात) जिनादेश ज्ञाता जिनेन्द्रा विख्याता, विशुद्धा प्रबुद्धा नमों लोकमाता। दुराचार-दुर्नहरा शंकरानी, नमो देवि वागेश्वरी जैनवाणी ।।१।। सुधाधर्म संसाधनी धर्मशाला, सुधाताप निर्नाशिनी मेघमाला । महामोह विध्वंसिनी मोक्षदानी, नमो देवि वागेश्वरी जैनवाणी ।।२।। अखैवृक्षशाखा व्यतीताभिलाषा, कथा संस्कृता प्राकृता देशभाषा। चिदानंद-भूपाल की राजधानी, नमो देवि वागेश्वरी जैनवाणी ।।३।। ३२६८000000000000000 VID10000 जिनेन्द्र अर्चना भ्रात जिनवाणी-सम नहिं आन, जान श्रुतपंचमि पर्व महान ।।टेक।। एकान्तों का नहीं ठिकाना, स्यावाद का लखा निशाना ।। मिटता भव-भव का अज्ञान, जान श्रुतपंचमि पर्व महान ।।१।। केवलज्ञानी की यह वाणी, खिरे निरक्षर तदि समझानी। सुर-नर तिर्यंच सुनते आन, जान श्रुतपंचमि पर्व महान ।।२।। गणधर हृदय विराजी माता, ज्ञानस्वभाव सहज झलकाता। सुनत चिन्तत हो भेद-ज्ञान, जान श्रुतपंचमि पर्व महान ।।३।। भविजन प्रीतिसहित चित धारे, रवि-शशि-सम तम को परिहारे। उर घट प्रकटे पूरन आन, जान श्रुत पंचमि पर्व महान ।।४ ।। मोक्षदायिका है जिनमाता, तुम पूजक सम्यक् निधिपाता। 'नंद' भी अपने आश्रित जान, जान श्रुतपंचमि पर्व महान ।।५।। जिनेन्द्र अर्चना 10000 164
SR No.008354
Book TitleJinendra Archana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkhil Bansal
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages172
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size552 KB
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