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क्षमा-क्षमा हो सभी हमारे दोष अनन्ते भव के। शिव का मार्ग बता दो माता, लेहु शरण में अबके।।६।। जयवन्तो जिनवाणी जग में, मोक्षमार्ग प्रवर्तो । श्रावक 'जयकुमार' बीनवे, पद दे अजर अमर तो।।७।।
स्याद्वाद हिम-गिरि ते उपजी, मोक्ष महासागरहि समानी ।।टेक ।। ज्ञान-विज्ञान रूप दोऊ ढाये, संयम भाव लहर हित आनी । धर्मध्यान जहँ भँवर परत है, शम-दम जामें सम-रस पानी ।।१।। जिन-संस्तवन तरंग उठत है, जहाँ नहीं भ्रम-कीच निशानी। मोह-महागिरि चूर करत है, रत्नत्रय शुध पंथ ढलानी ।।२।। सुर-नर-मुनि-खग आदिक पक्षी, जहाँ रमत निज समरस ठानी। 'मानिक' चित्त निर्मल स्थान करी, फिर नहीं होत मलिन भव प्राणी ।।३।।
जिन-बैन सुनत मोरी भूल भगी।।टेक ।। कर्मस्वभाव भाव चेतन को, भिन्न पिछानन सुमति जगी ।।१।। निज अनुभूति सहज ज्ञायकता, सो चिर रुष-तुष-मैल पगी ।।२।। स्याद्वाद धुनि निर्मल जलतें, विमल भई समभाव लगी ।।३।। संशय-मोह-भरमता विघटी, प्रकटी आतम सोंज सगी ।।४।। 'दौल' अपूरव मंगल पायो । शिवसुख लेन होंस उमगी ।।५।।
जिनवाणी माता रत्नत्रय निधि दीजिये ।।टेक ।। मिथ्यादर्शन-ज्ञान-चरण में, काल अनादि घूमे, सम्यग्दर्शन भयौ न तातै, दुःख पायो दिन दूने ।।१।। है अभिलाषा सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चरण दे माता। हम पावै निजस्वरूप आपनो, क्यों न बमैं गुणज्ञाता ।।२।। जीव अनन्तानन्त पठाये, स्वर्ग-मोक्ष में तूने । अब बारी है हम जीवन की, होवे कर्म विदूने ।।३।। भव्यजीव हैं पुत्र तुम्हारे, चहुँगति दुःख से हारे। इनको जिनवर बना शीघ्र अब, दे दे गुण-गण सारे।।४।।
औगुण तो अनेक होत हैं, बालक में ही माता। पै अब तुम-सी माता पाई, क्यों न बने गुणज्ञाता ।।५।।
10000 जिनेन्द्र अर्चना
जिनवाणी माता दर्शन की बलिहारियाँ ।।टेक ।। प्रथम देव अरहन्त मनाऊँ, गणधरजी को ध्याऊँ। कुन्दकुन्द आचार्य हमारे, तिनको शीश नवाऊँ।।१।। योनि लाख चौरासी माहीं, घोर महादुःख पायो। ऐसी महिमा सुनकर माता, शरण तुम्हारी आयो।।२।। जानै थाँको शरणो लीनों, अष्ट कर्म क्षय कीनो। जनम-मरण मिटा के माता, मोक्ष महापद दीनो ।।३।। ठाड़े श्रावक अरज करत हैं, हे जिनवाणी माता।
द्वादशांग चौदह पूरव का, कर दो हमको ज्ञाता ।।४।। जिनेन्द्र अर्चना 10000
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