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________________ सदा उदित विदलित मनमोह, विघटित नेह राहु अविरोह । तुम मुख-कमल अपूरब चंद, जगत विकासी जोति अमन्द ।।१८।। निशदिन शशि रवि को नहिं काम, तुम मुखचंद हरै तम घाम। जो स्वभाव उपजै नाज, सजल मेघ तो कौनहु काज ।।१९।। जो सुबोध सोहै तुममाहि, हरि नर आदिकमें सो नाहिं। जो दति महा-रतन में होय, काच-खण्ड पावै नहिं सोय ।।२०।। (नाराच छन्द) सराग देव देख मैं भला विशेष मानिया । स्वरूप जाहि देख वीतराग तू पिछानिया ।। कछु न तोहि देख के जहाँ तुही विशेखिया। मनोग चित्त-चोर और भूल हूँ न पेखिया ।।२१ ।। अनेक पुत्रवंतिनी नितंबिनी सपूत हैं। न तो समान पुत्र और मात” प्रसूत हैं।। दिशा धरंत तारिका अनेक कोटि को गिनै । दिनेश तेजवंत एक पूर्व ही दिशा जनै ।।२२।। पुरान हो पुमान हो पुनीत पुण्यवान हो। कहैं मुनीश अन्धकार-नाश को सुभान हो ।। महंत तोहि जानके न होय वश्य कालके । न और मोहि मोखपंथ देह तोहि टालके ।।२३ ।। अनन्त नित्य चित्त की अगम्य रम्य आदि हो । असंख्य सर्वव्यापि विष्णु ब्रह्म हो अनादि हो ।। महेश कामकेतु योग ईश योग ज्ञान हो। अनेक एक ज्ञानरूप शुद्ध संतमान हो ।।२४ ।। तुही जिनेश बुद्ध है सुबुद्धि के प्रमानतें । तुही जिनेश शंकरो जगत्त्रये विधानतें ।। तुही विधात है सही सुमोखपंथ धारतें । नरोत्तमो तुही प्रसिद्ध अर्थ के विचारतें ।।२५ ।। 1000000 जिनेन्द्र अर्चना नमों करूँ जिनेश तोहि आपदा निवार हो। नमों करूँ सु भूरि भूमि-लोक के सिंगार हो ।। नमों करूँ भवाब्धि-नीर-राशि-शोष-हेतु हो । नमों करूँ महेश तोहि मोखपंथ देतु हो ।।२६ ।। (चौपाई) तुम जिन पूरन गुन-गन भरे, दोष गर्व करि तुम परिहरे। और देव-गण आश्रय पाय, स्वप्न न देखे तुम फिर आय।।२७।। तरु अशोक-तर किरन उदार, तुम तन शोभित हे अविकार । मेघ निकट ज्यों तेज फुरंत, दिनकर दिपै तिमिर निहनंत ।।२८।। सिंहासन मनि-किरन-विचित्र, तापर कंचन-वरन पवित्र । तुम तन शोभित किरन-विथार, ज्यों उदयाचल रवि तमहार ।।२९।। कुन्द-पहुप-सित-चमर ढुरंत, कनक-वरन तुम तन शोभंत । ज्यों सुमेरु-तट निर्मल कांति, झरना झरै नीर उमगांति ।।३०।। ऊँचे रहैं सूर दुति लोप, तीन छत्र तुम दिपैं अगोप। तीन लोक की प्रभुता कहैं, मोती-झालरसौं छबि लहैं ।।३१।। दुन्दुभि-शब्द गहर गम्भीर, चहुँ दिशि होय तुम्हारे धीर । त्रिभुवन-जन शिवसंगम करें, मानूँ जय-जय रव उच्चरै ।।३२।। मन्द पवन गन्धोदक इष्ट, विविध कल्पतरु पहुप सुवृष्ट । देव करें विकसित दल सार, मानौं द्विज-पंकति अवतार ।।३३।। तुम तन-भामण्डल जिनचन्द, सब दुतिवंत करत है मन्द। कोटिशंख रवि तेज छिपाय, शशि निर्मल निशि करै अछाय ।।३४।। स्वर्ग-मोख-मारग संकेत, परम-धरम उपदेशन हेत। दिव्य वचन तुम खिरै अगाध, सब भाषागर्भित हित साध ।।३५ ।। (दोहा) विकसित-सुवरन-कमल-दुति, नख-दुति मिलि चमकाहिं। तुम पद पदवी जहँ धरो, तहँ सुर कमल रचाहिं ।।३६ ।। जिनेन्द्र अर्चना0000000 २00A 142
SR No.008354
Book TitleJinendra Archana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkhil Bansal
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2007
Total Pages172
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size552 KB
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