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आपाद-कण्ठमुरुश्रृंखल-वेष्टितांगा
गाढं वृहन्निगड-कोटि-निघृष्ट-जंघा। त्वन्नाम-मन्त्रमनिशं मनुजाः स्मरन्तः
सद्यः स्वयं विगत-बन्ध-भया भवन्ति ।।४६।। मत्तद्विपेन्द्र-मृगराज-दवानलाहि
संग्राम-वारिधि-महोदर-बन्धनोत्थम् । तस्याशु नाशमुपयाति भयं भियेव
यस्तावकं स्तवमिमं मतिमानधीते ।।४७।। स्तोत्रस्रजं तव जिनेन्द्र गुणैर्निबद्धां
भक्त्या मया रुचिर-वर्ण-विचित्र-पुष्पाम् । धत्ते जनो य इह कण्ठ-गतामजस्त्रं
तं 'मानतुंग' मवशा समुपैति लक्ष्मीः ।।४८ ।। भक्तामर स्तोत्र (भाषा) (पं. हेमराजजी कृत)
(दोहा) आदिपुरुष आदीश जिन, आदि सुविधि करतार । धरम-धुरंधर परमगुरु, नमों आदि अवतार ।।
(चौपाई) सुर-नत-मुकुट रतन-छवि करें, अन्तर पाप-तिमिर सब हरें। जिनपदवंदोमन-वच-काय, भव-जल-पतित उधरन-सहाय ।।१।। श्रुत पारग इन्द्रादिक देव, जाकी थुति कीनी कर सेव । शब्द मनोहर अरथ विशाल, तिस प्रभु की वरनों गुन-माल ।।२।। विबुध-वंद्य-पद मैं मति-हीन, होनिलज्ज थुति-मनसा कीन। जल-प्रतिबिम्ब बुद्ध को गहै, शशि-मण्डल बालक ही चहै।।३।। गुन-समुद्र तुम गुन अविकार, कहत न सुर-गुरु पावें पार। प्रलय-पवन-उद्धत जल-जन्तु, जलधि तिरैकोभुज-बलवन्त ।।४।।
जिनेन्द्र अर्चना
सो मैं शक्तिहीन थुति करूँ, भक्तिभाव वश कुछ नहिं डरूँ। ज्यों मृगि निज-सुत पालन हेत, मृगपति सन्मुख जाय अचेत ।।५।। मैं शठ सुधी हँसन को धाम, मुझ तव भक्ति बुलावै राम। ज्यों पिक अंब-कली-परभाव, मधु-ऋतु मधुर कर आराव ।।६।। तुम जस जंपत जन छिनमाहि, जनम-जनम के पाप नशाहिं। ज्योंरवि उगैफटैतत्काल, अलिवत नील निशा-तम-जाल ।।७।। तव प्रभावतें कहूँ विचार, होसी यह थुति जन-मन-हार । ज्यों जल-कमल-पत्र पै परै, मुक्ताफल की द्युति विस्तरै ।।८।। तुम गुन-महिमा हत-दुःख-दोष, सो तो दूर रहो सुख-पोष। पाप-विनाशक है तुम नाम, कमल-विकासी ज्यों रवि-धाम ।।९।। नहिं अचम्भ जो होहिं तुरन्त, तुमसे तुम गुण वरणत संत। जो अधीन को आप समान, करै न सो निंदित धनवान ।।१०।। इकटक जन तुमको अविलोय, अवरविषै रति करै न सोय। को करि क्षीर-जलधि जल पान, क्षार नीर पीवै मतिमान ।।११।। प्रभु तुम वीतराग गुन-लीन, जिन परमाणु देह तुम कीन । हैं तितने ही ते परमाणु, यात तुम सम रूप न आनु ।।१२ ।। कहँ तुम मुख अनुपम अविकार, सुर-नर-नाग-नयन-मनहार। कहाँ चन्द्र-मण्डल सकलंक, दिन में ढाक-पत्र सम रंक।।१३।। पूरन-चन्द्र-ज्योति छबिवंत, तुम गुन तीन जगत लंघत । एक नाथ त्रिभुवन आधार, तिन विचरत को करै निवार ।।१४।। जो सुर-तियविभ्रम आरम्भ, मन न डिग्यो तुम तो न अचंभ। अचल चलावै प्रलय समीर, मेरु-शिखर डगमगै न धीर ।।१५।। धूमरहित वाती गत नेह, परकाशै त्रिभुवन घर एह । वात-गम्य नाहीं परचण्ड, अपर दीप तुम बलो अखण्ड ।।१६।। छिपहु न लुपहु राहुकी छाहिं, जग-परकाशक हो छिनमाहिं।
घन अनवर्त्त दाह विनिवार, रवितै अधिक धरो गुणसार ।।१७।। जिनेन्द्र अर्चना 1000000
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