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स्वयंभूस्तोत्र (भाषा) (पं. द्यानतरायजी कृत)
(चौपाई) राजविर्षे जुगलनि सुख कियो, राज त्याग भुवि शिवपद लियो। स्वयंबोध स्वयंभू भगवान, बन्दौं आदिनाथ गुणखान ।। इन्द्र क्षीरसागर-जल लाय, मेरु न्हवाये गाय बजाय । मदन-विनाशक सुख करतार, बन्दौं अजित अजित-पदकार ।। शुकल ध्यानकरि करम विनाशि, घाति-अघाति सकल दुखराशि। लह्यो मुकतिपद सुख अविकार, बन्दौं सम्भव भव-दुःख टार ।। माता पच्छिम रयन मँझार, सुपने सोलह देखे सार । भूप पूछि फल सुनि हरषाय, बन्दौं अभिनन्दन मन लाय ।। सब कुवादवादी सरदार, जीते स्याद्वाद-धुनि धार । जैन-धरम-परकाशक स्वाम, सुमतिदेव-पद करहुँ प्रनाम ।। गर्भ अगाऊ धनपति आय, करी नगर-शोभा अधिकाय । बरसे रतन पंचदश मास, नमौं पदमप्रभु सुख की रास ।। इन्द फनिन्द नरिन्द त्रिकाल, बानी सुनि सुनि होहिं खुस्याल' । द्वादश सभा ज्ञान-दातार, नमौं सुपारसनाथ निहार ।। सुगुन छियालिस हैं तुम माहिं, दोष अठारह कोऊ नाहिं। मोह-महातम-नाशक दीप, नमौं चन्द्रप्रभ राख समीप ।। द्वादशविध तप करम विनाश, तेरह भेद चरित परकाश । निज अनिच्छ भवि इच्छक दान, बन्दौं पुहुपदन्त मन आन ।। भवि-सुखदाय सुरगतै आय, दशविध धरम कह्यो जिनराय। आप समान सबनि सुख देह, बन्दौं शीतल धर्म-सनेह ।। समता-सुधा कोप-विष नाश, द्वादशांग वानी परकाश। चार संघ आनंद-दातार, नमों श्रियांस जिनेश्वर सार ।। रत्नत्रय चिर मुकुट विशाल, सोभै कण्ठ सुगुन मनि-माल । मुक्ति-नार भरता भगवान, वासपूज्य बन्दौं धर ध्यान ।। परम समाधि-स्वरूप जिनेश, ज्ञानी-ध्यानी हित-उपदेश। कर्म नाशि शिव-सुख-विलसन्त, बन्दौं विमलनाथ भगवन्त ।।
अन्तर-बाहिर परिग्रह टारि, परम दिगम्बर-व्रत को धारि । सर्व जीव-हित-राह दिखाय, नौं अनन्त वचन-मन लाय ।। सात तत्त्व पंचास्तिकाय, अरथ नवों छ दरब बहु भाय । लोक अलोक सकल परकास, बन्दौं धर्मनाथ अविनाश ।। पंचम चक्रवर्ती निधि भोग, कामदेव द्वादशम मनोग। शान्तिकरन सोलम जिनराय, शान्तिनाथ बन्दौं हरषाय ।। बहु थुति करे हरष नहिं होय, निन्दे दोष गहैं नहिं कोय । शीलवान परब्रह्मस्वरूप, बन्दौं कुन्थुनाथ शिव-भूप ।। द्वादश गण पूर्जे सुखदाय, थुति वन्दना करें अधिकाय । जाकी निज-थुति कबहुँ न होय, बन्दौं अर-जिनवर-पद दोय।। पर-भव रत्नत्रय-अनुराग, इह भव ब्याह-समय वैराग । बाल-ब्रह्म पूरन-व्रत धार, बन्दौं मल्लिनाथ जिनसार ।। बिन उपदेश स्वयं वैराग, थुति लोकान्त करै पग लाग । नमः सिद्ध कहि सब व्रत लेहि, बन्दौं मुनिसुव्रत व्रत देहि ।। श्रावक विद्यावन्त निहार, भगति-भाव सों दियो अहार । बरसी रतन-राशि तत्काल, बन्दौं नमिप्रभु दीन-दयाल ।। सब जीवन की बन्दी छोर, राग-द्वेष द्वय बन्धन तोर । रजमति तजि शिव-तिय सों मिले, नेमिनाथ बन्दौं सुखनिले।। दैत्य कियो उपसर्ग अपार, ध्यान देखि आयो फनिधार । गयो कमठ शठ मुख कर श्याम, नमों मेरु-सम पारसस्वाम ।। भव-सागर तैं जीव अपार, धरम-पोत में धरे निहार । डूबत काढ़े दया विचार, वर्द्धमान बन्दौं बहु बार ।।
(दोहा) चौबीसों पद-कमल-जुग, बन्दौं मन-वच-काय ।
'द्यानत' पढ़े सुनै सदा, सो प्रभु क्यों न सहाय ।। १.सभा जिनेन्द्र अर्चना/0001
१. हर्षित
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10. जिनेन्द्र अर्चना
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