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पंचकल्याणक अर्घ्य शुभ आषाढ़ शुक्ल षष्ठी को, पुष्पोत्तर तज प्रभु आये। माता त्रिशला धन्य हो गई, सोलह सपने दरशाये ।। पन्द्रह मास रत्न बरसे, कुण्डलपुर में आनन्द हुआ।
वर्द्धमान के गर्भोत्सव पर, दूर शोक-दुख-द्वंद्व हुआ।। ॐ ह्रीं आषाढशुक्लषष्ठयां गर्भमंगलप्राप्ताय श्री वर्द्धमानजिनेन्द्राय अयं निर्वपामीति स्वाहा।
चैत्र शुक्ल की त्रयोदशी को, सारी जगती धन्य हुई। नृप सिद्धार्थराज हर्षाये, कुण्डलपुरी अनन्य हुई ।। मेरु सुदर्शन पाण्डुक वन में, सुरपति ने कर प्रभु अभिषेक।
नृत्य वाद्य मंगल गीतों के, द्वारा किया हर्ष अतिरेक ।। ॐ ह्रीं चैत्रशक्लत्रयोदश्यां जन्ममंगलमंडिताय श्री वर्द्धमानजिनेन्द्राय अयं निर्वपामीति स्वाहा
मगसिर कृष्णा दशमी को, उर में छाया वैराग्य अपार । लौकान्तिक देवों के द्वारा धन्य-धन्य प्रभु जय-जय कार ।। बाल ब्रह्मचारी गुणधारी, वीर प्रभु ने किया प्रयाण ।
वन में जाकर दीक्षा धारी, निज में लीन हुए भगवान ।। ॐ ह्रीं मार्गशीर्षकृष्णदशम्यां तपोमंगलमंडिताय श्री वर्द्धमानजिनेन्द्राय अयं निर्वपामीति स्वाहा ।
द्वादश वर्ष तपस्या करके, पाया तुमने केवलज्ञान । कर बैसाख शुक्ल दशमी को, वेसठ कर्म प्रकृति अवसान ।। सर्व द्रव्य-गुण-पर्यायों को, युगपत् एक समय में जान ।
वर्द्धमान सर्वज्ञ हुए प्रभु, वीतराग अरिहन्त महान ।। ॐ ह्रीं वैशाखशुक्लदशम्यां ज्ञानमंगलमंडिताय श्री वर्द्धमानजिनेन्द्राय अयं निर्वपामीति स्वाहा ।
कार्तिक कृष्ण अमावस्या को, वर्धमान प्रभु मुक्त हुए। सादि-अनन्त समाधि प्राप्त कर, मुक्ति-रमा से युक्त हुए।। अन्तिम शक्लध्यान के द्वारा, कर अघातिया का अवसान।
शेष प्रकृति पच्यासी को भी, क्षय करके पाया निर्वाण ।। ॐ ह्रीं कार्तिककृष्णामावस्यायां मोक्षमंगलमंडिताय श्री वर्द्धमानजिनेन्द्राय अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा
10. जिनेन्द्र अर्चना
जयमाला महावीर ने पावापुर से, मोक्षलक्ष्मी पाई थी। इन्द्र-सुरों ने हर्षित होकर, दीपावली मनाई थी ।। केवलज्ञान प्राप्त होने पर, तीस वर्ष तक किया विहार । कोटि-कोटि जीवों का प्रभु ने, दे उपदेश किया उपकार ।। पावापुर उद्यान पधारे, योगनिरोध किया साकार । गुणस्थान चौदह को तजकर, पहुँचे भवसमुद्र के पार ।। सिद्धशिला पर हुए विराजित, मिली मोक्षलक्ष्मी सुखकार । जल-थल-नभ में देवों द्वारा गूंज उठी प्रभु की जयकार ।। इन्द्रादिक सुर हर्षित आये, मन में धारे मोद अपार । महामोक्ष कल्याण मनाया, अखिल विश्व को मंगलकार ।। अष्टादश गणराज्यों के, राजाओं ने जयगान किया। नत-मस्तक होकर जन-जन ने, महावीर गुणगान किया ।। तन कपूरवत् उड़ा शेष नख, केश रहे इस भूतल पर । मायामयी शरीर रचा, देवों ने क्षण भर के भीतर ।। अग्निकुमार सुरों ने झुक, मुकुटानल से तन भस्म किया। सर्व उपस्थित जनसमूह, सुरगण ने पुण्य अपार लिया ।। कार्तिक कृष्ण अमावस्या का, दिवस मनोहर सुखकर था। उषाकाल का उजियारा कुछ, तम-मिश्रित अति मनहर था ।। रत्न-ज्योतियों का प्रकाश कर, देवों ने मंगल गाये । रत्न-दीप की आवलियों से, पर्व दीपमाला लाये ।। सब ने शीश चढ़ाई भस्मी, पद्म सरोवर बना वहाँ । वही भूमि है अनुपम सुन्दर, जल मन्दिर है बना वहाँ ।। प्रभु के ग्यारह गणधर में थे, प्रमुख श्री गौतम स्वामी ।
क्षपकश्रेणि चढ़ शुक्लध्यान से हुए देव अन्तर्यामी ।। जिनेन्द्र अर्चना 100000
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