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पद्मराय नृप के लघु भाई, विष्णुकुमार महा मुनिवर । वात्सल्य का भाव जगा, मुनियों पर संकट का सुनकर ।। किया गमन आकाश मार्ग से, शीघ्र हस्तिनापुर आये। ऋद्धि विक्रिया द्वारा याचक, वामन रूप बना लाये ।। बलि से माँगी तीन पाँव भू, बलिराजा हँसकर बोला। जितनी चाहो उतनी ले लो, वामन मूर्ख बड़ा भोला ।। हँसकर मुनि ने एक पाँव में ही सारी पृथ्वी नापी। पग द्वितीय में मानुषोत्तर पर्वत की सीमा नापी ।। ठौर न मिला तीसरे पग को, बलि के मस्तक पर रक्खा। क्षमा-क्षमा कह कर बलि ने, मुनिचरणों में मस्तक रक्खा ।। शीतल ज्वाला हुई अग्नि की श्री मुनियों की रक्षा की। जय-जयकार धर्म का गूंजा, वात्सल्य की शिक्षा दी।। नवधा भक्तिपूर्वक सबने मुनियों को आहार दिया। बलि आदिक का हुआ हृदय परिवर्तन जय-जयकार किया।। रक्षासूत्र बाँधकर तब जन-जन ने मंगलाचार किये। साधर्मी वात्सल्य भाव से, आपस में व्यवहार किये ।। समकित के वात्सल्य अंग की महिमा प्रकटी इस जग में। रक्षा-बन्धन पर्व इसी दिन से प्रारम्भ हुआ जग में ।। श्रावण शुक्ल पूर्णिमा दिन था रक्षासूत्र बँधा कर में। वात्सल्य की प्रभावना का आया अवसर घर-घर में।। प्रायश्चित्त ले विष्णुकुमार ने पुनः व्रत ले तप ग्रहण किया। अष्ट कर्म बन्धन को हरकर इस भव से ही मोक्ष लिया।। सब मुनियों ने भी अपने-अपने परिणामों के अनुसार। स्वर्ग-मोक्ष पद पाया जग में हुई धर्म की जय-जयकार ।। धर्म भावना रहे हृदय में, पापों के प्रतिकूल चलूँ।
रहे शुद्ध आचरण सदा ही धर्म-मार्ग अनुकूल चलूँ।। २०२00000
00000000000 जिनेन्द्र अर्चना
आत्मज्ञान रुचि जगे हृदय में, निज-पर को मैं पहिचानूँ। समकित के आठों अंगों की, पावन महिमा को जानूँ ।। तभी सार्थक जीवन होगा सार्थक होगी यह नर देह । अन्तर घट में जब बरसेगा पावन परम ज्ञान रस मेह ।। पर से मोह नहीं होगा, होगा निज आतम से अति नेह। तब पायेंगे अखंड अविनाशी निजसुखमय शिवगेह ।। रक्षा-बंधन पर्व धर्म का, रक्षा का त्यौहार महान । रक्षा-बंधन पर्व ज्ञान का रक्षा का त्यौहार प्रधान ।। रक्षा-बंधन पर्व चरित का, रक्षा का त्यौहार महान । रक्षा-बंधन पर्व आत्म का, रक्षा का त्यौहार प्रधान ।।
श्री अकम्पनाचार्य आदि मनि सात शतक को करूँ नमन।
मुनि उपसर्ग निवारक विष्णुकुमार महामुनि को वन्दन ।। ॐ ह्रीं श्रीविष्णुकुमार एवं अकम्पनाचार्यादिसप्तशतकमुनिभ्यो जयमालापूर्णाऱ्या निर्वपामीति स्वाहा।
(दोहा) रक्षा बन्धन पर्व पर, श्री मुनि पद उर धार । मन-वच-तन जो पूजते, पाते सौख्य अपार ।।
(पुष्पाञ्जलिं क्षिपेत्)
परमात्मा के प्रतीक : अष्टद्रव्य
(सोरठा) जल-से निर्मल नाथ! चन्दन-से शीतल प्रभो! अक्षत-से अविनाश, पुष्प-सदृश कोमल विभो! रत्नदीप-सम ज्ञान, षट्रस व्यंजन-से सुखद । सुरभित धूप-समान, सरस सु-फलसम सिद्ध पद।।
जिनेन्द्र अर्चना
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