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कामबाण विध्वंस हेतु मैं सहज पुष्प करता अर्पण । क्रोधादिक चारों कषाय हर निज परिणति में करूँ रमण ।। श्री अकम्पनाचार्य आदि मुनि सप्तशतक को करूँ नमन ।
मुनि उपसर्ग निवारक विष्णुकुमार महा मुनि को वन्दन ।। ॐ ह्रीं श्रीविष्णुकुमार एवं अकम्पनाचार्यादिसप्तशतकमुनिभ्यः पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
क्षुधारोग के नाश हेतु नैवेद्य सरस करता अर्पण ।
विषयभोग की आकांक्षा हर निज परिणति में करूँ रमण ।।श्री. ।। ॐ ह्रीं श्रीविष्णुकुमार एवं अकम्पनाचार्यादिसप्तशतकमुनिभ्यो नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
चिर मिथ्यात्व तिमिर हरने को दीपज्योति करता अर्पण।
सम्यग्दर्शन का प्रकाश पा निज परिणति में करूँ रमण ।।श्री. ।। ॐ ह्रीं श्रीविष्णुकुमार एवं अकम्पनाचार्यादिसप्तशतकमुनिभ्यो दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
अष्ट कर्म के नाश हेतु यह धूप सुगन्धित है अर्पण ।
सम्यग्ज्ञान हृदय प्रकटाऊँ निज परिणति में करूँ रमण ।।श्री. ।। ॐ ह्रीं श्रीविष्णुकुमार एवं अकम्पनाचार्यादिसप्तशतकमुनिभ्यो धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
मुक्ति प्राप्ति हित उत्तम फल चरणों में करता हूँ अर्पण।
मैं सम्यक्चारित्र प्राप्त कर निज परिणति में करूँ रमण ।।श्री. ।। ॐ ह्रीं श्रीविष्णुकुमार एवं अकम्पनाचार्यादिसप्तशतकमुनिभ्यः फलं निर्वपामीति स्वाहा।
शाश्वत पद अनर्घ्य पाने को उत्तम अर्घ्य करूँ अर्पण।
रत्नत्रय की तरणी खेऊँ निज परिणति में करूँ रमण ।।श्री.।।। ॐ ह्रीं श्रीविष्णुकुमार एवं अकम्पनाचार्यादिसप्तशतकमुनिभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा।
(ताटक) उज्जयनी नगरी के नृप श्रीवर्मा के मंत्री थे चार । बलि, प्रहलाद, नमुचि वृहस्पति चारों अभिमानी सविकार ।। जब अकम्पनाचार्य संघ मुनियों का नगरी में आया। सात शतक मुनि के दर्शन कर नृप श्रीवर्मा हर्षाया ।। सब मुनि मौन ध्यान में रत, लख बलि आदिक ने निंदा की। कहा कि मुनि सब मूर्ख, इसी से नहीं तत्त्व की चर्चा की।। किन्तु लौटते समय मार्ग में, श्रुतसागर मुनि दिखलाये। वाद-विवाद किया श्री मुनि से, हारे, जीत नहीं पाये ।। अपमानित होकर निशि में मुनि पर प्रहार करने आये। खड्ग उठाते ही कीलित हो गये हृदय में पछताये ।। प्रातः होते ही राजा ने आकर मुनि को किया नमन । देश-निकाला दिया मंत्रियों को तब राजा ने तत्क्षण ।। चारों मंत्री अपमानित हो पहुँचे नगर हस्तिनापुर । राजा पद्मराय को अपनी सेवाओं से प्रसन्न कर ।। मुँह-माँगा वरदान नृपति ने बलि को दिया तभी तत्पर । जब चाहूँगा तब ले लूँगा, बलि ने कहा नम्र होकर ।। फिर अकम्पनाचार्य सात सौ मुनियों सहित नगर आये। बलि के मन में मुनियों की हत्या के भाव उदय आये।। कुटिल चाल चल बलि ने नृप से आठ दिवस का राज्य लिया। भीषण अग्नि जलाई चारों ओर द्वेष से कार्य किया ।। हाहाकार मचा जगती में, मुनि स्व ध्यान में लीन हुए। नश्वर देह भिन्न चेतन से, यह विचार निज लीन हुए।। यह नरमेघ यज्ञ रच बलि ने किया दान का ढोंग विचित्र।
दान किमिच्छक देता था, पर मन था अति हिंसक अपवित्र ।। जिनेन्द्र अर्चना 10000
जयमाला
(दोहा) वात्सल्य के अंग की, महिमा अपरम्पार ।
विष्णुकुमार मुनीन्द्र की, [जी जय-जयकार ।। २००00000000000
1000000 जिनेन्द्र अर्चना
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