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________________ १३२ जिन खोजा तिन पाइयाँ होते हुए भी वेदना जनित भय नहीं होता और शरीर तो व्याधि का ही मन्दिर है, रोगों का ही घर है। इसके एक-एक रोम में ९६-९६ रोग हैं। इसकारण रोगों से बचने का तो एकमात्र उपाय देहातीत होना ही है। जब तक संसार में जन्म-मरण है, तब तक कोई भी इन व्याधियों से नहीं बच सकता। (५०) वस्तुस्वातंत्र्य का सिद्धान्त एवं उसके पोषक कारण- कार्य, चार अभाव, पाँच समवाय, षट्कारक आदि ही तो वे आधार शिलायें हैं, जिस पर मोक्षमहल का निर्माण होता है। अतः इन सबको जानकर श्रद्धान करना एवं तदनुकूल धर्माचरण करना ही तो धर्म का मूल है। इनकी यथार्थ प्रतीति से उपयोग की प्रवृत्ति अन्तर्मुखी होने लगेगी, फिर हम समस्त कर्तृत्व के भार से निर्भर हो जायेंगे। वस्तुतः यह धर्माचरण साधन है, साध्य नहीं है । साध्य तो एकमात्र शुद्धात्मा, कारण परमात्मा है, एतदर्थ मुक्ति महल के नींव के पत्थर वस्तु स्वातंत्र्य का यथार्थ ज्ञान-श्रद्धान होना हमारी प्राथमिक आवश्यकता है। (६८) कहानी : ऐसे क्या पाप किए से ~ ( १ ) जब संकट के बादल सिर पर मंडरा रहे हैं, सब ओर से विपत्तियाँ घेरे हैं, तरह-तरह की मुसीबतों में फँसे हैं, नाना प्रकार की बीमारियाँ शरीर में स्थाई निवास बना चुकी हैं; तो ये सब पुण्य के फल तो होते ही नहीं हैं, इससे स्पष्ट है कि कोई न कोई पाप तो किए होंगे, जिनको हम भूल गये हैं। और भगवान से पूछने लगे हैं कि- 'हे भगवान! हमने पिछले जन्म में ऐसे क्या पाप किये थे, जिनकी इतनी बड़ी सजा हमें मिल रही है ? ( २ ) जगत के जीवों की कुछ ऐसी ही मनोवृत्ति है कि वे पाप तो हंस-हंस कर करते हैं और उनका फल भुगतना नहीं चाहते। पुण्य कार्य करते नहीं हैं और फल पुण्य का चाहते हैं। वस्तुतः जीवों को पुण्य-पाप के परिणामों की पहचान ही नहीं है, पाप बन्ध कैसे होता है, पुण्य बन्ध कैसे होता है, इसका पता ही नहीं है। वे बाहर में होती हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील आदि को ही पाप समझते हैं, आत्मा में हो रहे खोटे भावों को पाप ही नहीं मानते। यही सबसे बड़ी भूल हैं, जिसे अज्ञानी नहीं जानता। इसी कारण दुःख के ही बादल मंडराते रहते हैं। जब क्षणभर को भी शान्ति नहीं मिलती तो भगवान से पूछता है कि - हे भगवन्! मैंने ऐसे क्या पाप किए ? ( ३ ) वस्तु स्थिति यह है कि अभी जीवों को पाप की भी सही पहचान नहीं है। हत्या, झूठ, चोरी, पराई माँ-बहिन-बेटी पर कुदृष्टि तो पाप है ही; परन्तु पाप-पुण्य का सम्बन्ध पर द्रव्यों से नहीं; बल्कि अपने परिणामों से होता है; अपने मिथ्या अभिप्राय से होता है, इसकी उसे खबर नहीं है।
SR No.008353
Book TitleJina Khoja Tin Paiya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages74
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size268 KB
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