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________________ नींव का पत्थर से १२९ जिन खोजा तिन पाइयाँ (३४) यद्यपि क्रमबद्धपर्याय स्वतः संचालित अनादि-निधन सुव्यवस्थित विश्व-व्यवस्था का एक ऐसा नाम है जो अनन्तानन्त सर्वज्ञ भगवन्तों के ज्ञान में तो अनादि से है ही, उनकी दिव्य वाणी से उद्भूत चारों अनुयोगों में भी है। इसे चारों ही अनुयोगों में सर्वत्र देखा, खोजा जा सकता है। बस, देखने के लिए निष्पक्ष शोधपरक दृष्टि चाहिए। क्रमबद्धपर्याय से आशय यह है कि इस परिणमनशील जगत की परिणमन व्यवस्था क्रम नियमित है। जगत में जो भी परिणमन निरन्तर हो रहा है, वह सब एक निश्चित क्रम में व्यवस्थित रूप से हो रहा है। स्थूल दृष्टि से देखने पर जो परिणमन अव्यवस्थित दिखाई देता है; वह भी व्यवस्थित ही है। जिस द्रव्य की, जो पर्याय, जिस काल में, जिस निमित्त व जिस पुरुषार्थपूर्वक, जैसी होनी है; उस द्रव्य की, वह पर्याय, उसी काल में, उसी निमित्त व उसी पुरुषार्थ पूर्वक वैसी ही होती है, अन्यथा नहीं -यह नियम है। इस नियम के अनुसार जिसका जन्म अथवा मरण जिनदेव ने जैसा नियतरूप से जाना है, उस जीव का, उसी देश में, उसी काल में, उसी विधान से वह अवश्य होता है। उसे इन्द्र अथवा जिनेन्द्र कौन टालने में समर्थ है? इस प्रकार निश्चय से जो द्रव्यों को और उनकी समस्त पर्यायों को जानता है, वह ज्ञानी है, सम्यग्दृष्टि है। (३६) पाँच समवायों में काल के अतिरिक्त अन्य स्वभाव, पुरुषार्थ, होनहार और निमित्तरूप चार समवायों की मुख्यता से मृत्यु की बात करें तो उसे अकाल मरण कहते हैं तथा जब काल की मुख्यता से बात करें तो वही मृत्यु की घटना स्वकाल में हुई - ऐसा कहा जाता है। (३७) स्वभाव और पुरुषार्थ की श्रद्धा वाले की होनहार भी भली होती है और उसकी काललब्धि भी मुक्ति मार्ग पाने की आ गई, इसतरह जिसके चार-चार समवाय हो गये उसको निमित्त भी तदनुकूल मिलता ही है। (३८) मांसाहारी पशुओं की मजबूरी की बात तो समझ में आती है, परन्तु यह समझ में नहीं आता कि मनुष्य को ऐसी क्या मजबूरी है जो मांसाहार करता है। मनुष्य तो प्रकृति से शाकाहारी ही है। मांस उसके दांतों और आतों के भी अनुकूल नहीं है। (३९) जिसका क्रिया से सीधा सम्बन्ध हो, जो क्रिया के प्रति किसी न किसी रूप में प्रयोजक हो, जो क्रिया निष्पत्ति में कार्यकारी हो, क्रिया का जनक हो; उसे कारक या कारण कहते हैं। तात्पर्य यह है कि जो किसी न किसी रूप में क्रिया व्यापार के प्रति प्रयोजक हो, कार्यकारी हो, वही कारक हो सकता है अन्य नहीं; कारक छह होते हैं। कर्ता, कर्म, करण, सम्प्रदान, अपादान और अधिकरण । (४०) सामान्य जन तो स्वयं को दूसरों के सुख-दुःख का कर्ता और दूसरों को अपने सुख-दुःख का कर्त्ता मानकर दूसरों पर राग-द्वेष करके हर्ष-विषाद सर्वज्ञ को धर्म का मूल कहा गया है। जो व्यक्ति सर्वज्ञ भगवान को द्रव्यरूप से, गुणरूप से और पर्यायरूप से जानता है, वह अपने आत्मा को भी जानता है और उसका मोह नियम से क्षय हो जाता है। अतः अरहंतों को जानना तो हमारी प्राथमिकता है। 'सर्वज्ञता' और 'क्रमबद्धपर्याय' परस्परानुबद्ध हैं। एक का निर्णय व सच्ची समझ दूसरे के निर्णय के साथ जुड़ी हुई है। दोनों का निर्णय ही सर्वज्ञ स्वभावी निज आत्मा के अनुभव के सम्मुख होने का साधन है। (६६)
SR No.008353
Book TitleJina Khoja Tin Paiya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages74
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size268 KB
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