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________________ नींव का पत्थर से नींव का पत्थर से~ कोई कितना भी छुपकर गुप्त पाप करें अथवा भले काम करते हुए उनका बिल्कुल भी प्रदर्शन न करें तो भी कर्मों को तो पता चल ही जाता है। अर्थात् जीव के पुण्य-पापभावों के निमित्त से कर्मप्रकृतियों या कार्माणवर्गणाओं में कर्मरूप परिणमन तो स्वतः हो ही जाता है। अन्तर्मुखी उपयोग करने का एकमात्र उपाय वस्तुस्वातंत्र्य की यथार्थ समझ और श्रद्धा ही है; क्योंकि वस्तुस्वातंत्र्य के ज्ञान-श्रद्धान बिना अन्य के भले-बुरे करने का भाव निरन्तर बना रहता है। ___ हमें ऐसा विश्वास हो कि प्रत्येक प्राणी; बल्कि पुद्गल के प्रत्येक परमाणु का परिणमन भी स्वाधीन है, किसी भी जीव के सुख-दुःख का कर्ता-हर्ता कोई अन्य नहीं है, क्योंकि प्रत्येक वस्तु स्वतंत्र है, स्वाधीन है, स्व-संचालित है। तब हम इस कर्तृत्व के भार से निर्भार हो सकेंगे। जीव अपने ज्ञातादृष्टा स्वभाव और अपने कार्य की सीमाओं को भूलकर स्वयं दुःखों के बीज बोता है। जब जीव अपने में शुभाशुभ भाव करते हैं तो कर्म सहज ही जीवों की ओर खिंचे चले जाते हैं, इसमें कर्मों का क्या दोष है? फिर भी नादान जीव कर्मों को ही दोषी ठहराता है। सभी संयोग क्षण भंगुर हैं, पर्यायें लयधर्मा हैं, परिजन-पुरजन, जननीभगनी, सुत-सुता, ध्रुव-धाम और प्रिय-वाम सब भिन्न हैं, अशरण हैं; एकमात्र शुद्धात्मा और परमात्मा ही शरणभूत हैं। ज्ञानी को ऐसा निश्चय हो जाता है। जिसतरह पुण्योदय से प्राप्त मिष्ठान खाते-खाते पापोदय आ जाने से जीभ दाँतों के नीचे आ जाती है, उसीतरह जीव के पूर्व पुण्योदय से प्राप्त भोगों को भोगते-भोगते उसके पाप का ऐसा उदय आता है कि उसकी दुनियाँ ही पलट जाती है। किसी भी बात को कहने के पहले उसकी प्रतिक्रिया दूसरों पर क्या होगी, इस बात का विचार अवश्य करना चाहिए। (८) कोई बात चार कानों में पहुँची नहीं कि जगजाहिर हो जाती है। अतः किसी से कुछ कहने के पहले बात को विवेक की तराजू पर तौलना चाहिए। कुछ लोग प्रथम श्रेणी के ऐसे समझदार होते हैं कि दूसरों को ठोकर खाते देख स्वयं ठोकर खाने से बच जाते हैं। दूसरी श्रेणी में कुछ कम समझदार लोग ऐसे होते हैं जो स्वयं ठोकर खाकर सीखते हैं तथा तीसरी श्रेणी के कुछ ना समझ लोग ऐसे भी होते हैं जो ठोकरों पर ठोकरें खाते हैं, फिर भी नहीं सीखते। तीसरी श्रेणी के ना समझ लोगों को दुःख के गढ्ढे में गिरने से कोई नहीं बचा सकता। जो दूसरों से शिक्षा रूप में कहा जाय, उस पर स्वयं भी अमल करना चाहिए क्योंकि किसी को कहकर नहीं सिखाया जा सकता, करके ही सिखाया जा सकता है। अन्यथा कही गई बात अप्रभावी ही रहेगी। (१०) संयोग न सुखदायक है और न दुःखदायक हैं; संयोगी भाव निश्चित ही दुःखदायक हैं। अतः संयोगों की जैसी जो स्थिति है, उसी में सहज रहना चाहिए। संयोगों के प्रभावित न हों। (६१)
SR No.008353
Book TitleJina Khoja Tin Paiya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages74
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size268 KB
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