SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 60
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सुखी जीवन से ११७ ११६ जिन खोजा तिन पाइयाँ ज्ञानीजन स्वतंत्र-स्व-संचालित विश्व-व्यवस्था के इस प्राकृतिक तथ्य से भली-भाँति परिचित होन से श्रद्धा के स्तर पर मृत्युभय से भयभीत नहीं होते और अपना अमूल्य समय व्यर्थ की चिन्ताओं में बर्बाद नहीं करते। वे समाधि की साधना करते हुए अन्त में सल्लेखना धारण कर मृत्यु का सहर्षवरण करते हैं। (८८) सल्लेखना में जहाँ काय व कषाय कृश करना मुख्य है, वहीं समाधि में निज शुद्धात्मस्वरूप का ध्यान प्रमुख है। सन्यास बिना समाधि सम्भव नहीं है और समाधि बिना सल्लेखना सम्भव नहीं होती। तत्त्वज्ञान के बिना संसार में कोई सुखी नहीं है, अज्ञानी न तो समाधि से जी ही सकता है और न समाधिमरण पूर्वक मर ही सकता है। अतः हमें आत्मज्ञान प्राप्त करने के लिए मोक्षमार्ग में प्रयोजनभूत प्रमुख सिद्धान्तों को समझना अति आवश्यक है। (८९) हम चाहे निर्भय रहें या भयभीत, रोगों का उपचार करें या न करें; जो प्रबल कर्म उदय में आयेंगे, उनका फल तो भोगना ही होगा। जब तक असाता का उदय रहता है, तब तक निमित्त रूप से औषधि भी अनुकूल या कार्यकारी नहीं होती। अन्यथा बड़े-बड़े राजा-महाराजा और वैद्य-डॉक्टर तो कभी बीमार ही नहीं पड़ते; क्योंकि उनके पास साधनों की क्या कमी है? अतः स्पष्ट है कि होनहार के आगे कभी किसी का वश नहीं चलता। (९०) आत्मा का कल्याण करना हो तो बाल-बच्चों और घर गृहस्थी की इस चैं-चैं-मैं-मैं में ही करना होगा, अन्यथा उस घोड़े की तरह हम भी तत्त्वज्ञान का अमृत पिये बिना प्यासे ही रह जायेंगे। जब तक बच्चों की -चैं, पैं-मैं बन्द होगी, तब तक सांसों का आना-जाना बन्द हो जायेगा, जीवन समाप्त हो जायेगा। अतः इसी स्थिति में आत्मकल्याण का काम भी करना अनिवार्य है। आत्मकल्याण का काम तो इस दुनियादारी की खटपट में रहते हुए ही चट-पट करना होगा । बाल-बच्चों की इस चैं-3 में ही करना होगा। (९१) हम काम करें न करें; किसी के भी कारण दुनिया का कोई काम नहीं रुकता। जब हम नहीं रहेंगे तब क्या हम परलोक से आयेंगे यहाँ का काम निबटाने? फिर भी तो सब होगा ही? तो क्यों न हम जीते जी अपने को अपने में ही समेट लें और अपने में ही जमने-रमने का सम्यक् पुरुषार्थ कर लें? (९२) प्यासों को पानी पिलाकर उनका मात्र दो घण्टे का दुःख दूर किया जा सकता है, भूखों को भोजन देकर मात्र आठ घण्टे की भूख मिटाई जा सकती है, बीमारों को औषधिदान देकर किसी बीमारी विशेष से चार-छः माह को राहत दिलाई जा सकती है, वस्त्र विहीन दरिद्रियों को वस्त्रों का दान देकर उसकी क्षणिक लाज बचाई जा सकती है। आहारदान, ज्ञानदान, औषधिदान और अभयदान के नाम पर क्षणिक दुःख दूर किया जा सकता है; परन्तु ऐसा करने से अनन्त जीवों के अनन्तकाल से हो रहे अनन्त दुख दूर नहीं किए जा सकते। तत्त्वज्ञान का दान देना ही सर्वोत्तम उपकार है। तीर्थंकर आदि भी ऐसा ही उपकार करते हैं। अतः क्यों न अपने शेष जीवन को तत्त्वाभ्यास एवं तत्त्वज्ञान के प्रचार-प्रसार में ही सम्पूर्णतया समर्पित कर दिया जाय? और इसके लिए जिन साधनों की आवश्यकता हो; उन सभी साधनों को जुटाने में अपने अर्जित धन का भी सदुपयोग क्यों न किया जाये? ॐ नमः। (६०)
SR No.008353
Book TitleJina Khoja Tin Paiya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages74
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size268 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy