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________________ जिन खोजा तिन पाइयाँ क्रमशः घटता जाये और कितनी ही पाप प्रकृतियों का बन्ध क्रमशः मिटता जाये - इत्यादि प्रकार से जो कर्मों के क्षीण होने की प्रक्रिया प्रारम्भ होती है, उसे प्रायोग्यलब्धि कहते हैं। पाँचवीं लब्धि करणलब्धि है। इसके होने पर सम्यग्दर्शन होता ही है - ऐसा नियम है। जिसको पहले उपर्युक्त चार लब्धियाँ हुई हों और अन्तर्मुहूर्त पश्चात् सम्यक्त्व होना हो, उसी के यह करणलब्धि होती है। करण नाम तो परिणामों का है। क्षयोपशम, विशुद्धि, देशना एवं प्रायोग्यलब्धि के कारण बढ़ते हुए आत्मा के जिन विशुद्ध परिणामों के द्वारा दर्शन मोह का उपशम होता है, उस विशेष परिणाम को करणलब्धि' कहा जाता है। इस करणलब्धिवाले जीव के बुद्धिपूर्वक तो इतना ही उद्यम होता है कि तत्त्वविचार में उपयोग को तद्रूप होकर लगाये, उससे समय-समय परिणाम निर्मल हो जाते हैं। इससे तत्त्वोपदेश का विचार ऐसा निर्मल होने लगता है कि जिससे उसको शीघ्र ही आत्मा का सम्यक् श्रद्धान हो जायेगा। सुखी जीवन से पाये, अन्यथा यह दुर्लभ मनुष्यभव एवं तीनों लब्धियों की उपलब्धि निरर्थक ही चली जायेगी। (४०) अपनों के साथ जैसा अपनापन अपने स्वाभाविक व्यवहार और मातृभाषा बोलने में आता है; अपने बड़े-बूढ़े और बाल-बच्चों के बीच उन्हीं की टोन में, उन्हीं के लहजे में बातचीत करने में आता है, उनके सुखदुःख में साथ देने एवं घर के कामकाज में हाथ बटाने में आता है; वह अपनत्व बनावटी व्यवहार में, कोरी औपचारिकता निभाने में और खिचड़ी बोली बोलने में कहाँ? (४१) अपने आपको एजूकेटेड और अपटूडेट समझने वाली पाश्चात्य संस्कृति से प्रभावित कुछ कॉलेजी लड़कियाँ और कामकाजी महिलायें अपने घरपरिवार और पड़ौस में भी अपनी अलग-थलग पहचान बनाने के लिए अपनी मातृभाषा में न बोलकर, सीधी-सादी हिन्दी बोलकर बीच-बीच में अनावश्यक अंग्रेजी के शब्द मिलाकर हिन्दी की चिन्दी तो करती ही हैं, बड़ी-बूढ़ी घरेलू महिलाओं के साथ घर के कामकाज में हाथ बटाने में हीन भावना का भी अनुभव करती हैं। भले गप-शप लड़ाने में घण्टों बर्बाद करती रहेंगी, पर घरेलू काम करने में समय की बर्बादी समझती हैं।आधुनिकता के व्यामोह में वे यह नहीं समझ पातीं कि ऐसा आचरण करके हम अनचाहे ही अपनों के बीच में रहकर भी भावनात्मक रूप में उनसे दूर होती जा रही हैं। ___ घर-परिवार की प्रसन्नता में ही अपनी प्रसन्नता सम्भव है। जिस घर में कलह और क्लेश की ज्वाला जलती रहती हो, उसमें हम बिना झुलसे कैसे रह सकते हैं? (४२) जैनदर्शन केवल न जन-जन की स्वतंत्रता की बात कहता है, बल्कि यह तो कण-कण की स्वतंत्रता का उद्घोष करता है। करणलब्धि के अन्तर्गत तीन करण होते हैं - १. अद्यःप्रवृत्तकरण, २. अपूर्व करण और ३. अनिवृत्तिकरण ये तीनों करण अन्तर्मुहूर्त में हो जाते हैं। प्रत्येक करण का काल भी अन्तर्मुहूर्त है। इनमें अनिवृत्तिकरण का काल सबसे थोड़ा है। अनिवृत्तिकरण के काल से अपूर्वकरण का काल असंख्यात गुणा अधिक है। अपूर्वकरण के काल से अद्यःप्रवृत्तकरण का काल असंख्यात गुणा अधिक है। ये करण प्रथमोपशम सम्यक्त्व के पूर्व मिथ्यादृष्टि को भी होते हैं और कषायों के उपशमन व क्षपणा के लिये सातवें गुणस्थान से लेकर आठवें, नौवें गुणस्थान में भी होते हैं। निष्कर्ष मात्र इतना है कि - प्रारंभ की तीन लब्धियाँ प्राप्त करने का सु-अवसर तो हमें प्राप्त हो ही गया है, प्रायोग्य और करणलब्धि भी अपने आत्माभिमुख पुरुषार्थ से हो सकती है; अतः इसमें शिथिलता न आने 14
SR No.008353
Book TitleJina Khoja Tin Paiya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages74
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size268 KB
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