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________________ जिन खोजा तिन पाइयाँ सुखी जीवन से (३४) सम्यग्दर्शन की पात्रता के लिये मात्र यही तो कहा है कि चारों गतियों का कोई भी जीव, जो संज्ञी पञ्चेन्द्रिय हो, गर्भज हो, पर्याप्तक हो, भव्य हो, मन्द कषायरूप विशुद्धता का धारक हो, साकार उपयोगी हो, जागृत हो। चाहे वह अनादि अगृहीत मिथ्यादृष्टि हो या सादि । जब क्षयोपशम, देशना, विशुद्धि लब्धियों द्वारा अपने परिणामों की निर्मलता बढ़ाते हुए क्रमशः ज्ञानावरणादि समस्त सर्वघाति कर्मों की स्थिति को घटाते-घटाते अन्तः कोडाकोड़ी सागर प्रमाण से भी कम कर लेता है, तब फिर वह एक मुहूर्त में मिथ्यात्व की अनुभाग शक्ति को भी घटा लेता है। इस प्रकार उसके सम्यग्दर्शन के योग्य क्षयोपशम, विशुद्धि व देशना तो है ही। बस, इसी दिशा में सक्रिय रहने से प्रायोग्यलब्धि और करणलब्धि की शर्त भी समय पर स्वत: पूरी हो जाती है और सम्यग्दर्शन हो जाता है। (३५) अरे! तुम तो वह हो, जिसके दर्शन का नाम सम्यग्दर्शन है। वह सम्यग्दर्शन पर्याय तुम्हारे दर्शन करके कृतार्थ होती है। बस, तुम्हें तो मात्र स्वयं को जानना, स्वयं को पहचानना और स्वयं में ही जमना-रमना है। सम्यग्दर्शन प्राप्त करने के लिए तुम्हें इसके सिवाय और कुछ करना ही नहीं है। सम्यग्दर्शन पर्याय स्वयं ही आत्मा के द्रव्यस्वभाव का वरण करेगी, आत्मद्रव्य को कुछ नहीं करना है, जो कुछ करेगी वह पर्याय ही करेगी। (३७) श्रोता अनेक प्रकार के होते हैं - एक, वे जो देशना को सुनते तो हैं, पर मात्र सुनकर ही छोड़ देते हैं और अपने दूसरे कामों में लग जाते हैं। इस कारण सुना हुआ विषय उनकी धारणा में नहीं रहता। । दूसरे, कुछ श्रोता ऐसे होते हैं, जो ध्यान से सुन लेते हैं, धारणा में भी ले लेते हैं; परन्तु सुने हुये उपदेश पर विचारपूर्वक निर्णय ही नहीं करते। यदि करते भी हैं तो निर्णय करते समय निष्पक्ष नहीं रह पाते। तीसरे, वे; जिन्हें जिस विचार से सच्चा निर्णय हो सकता है वह विचार मिथ्यात्व के जोर के कारण हो नहीं सकता। जिसका पक्षपात है, वही सच लगता है। इन सबने जो तत्त्वोपदेश सुना, वह देशना तो हो सकती है; पर देशनालब्धि नहीं; क्योंकि वह देशना मात्र देशना बनकर ही रह गई, उपादान में तत्त्वज्ञान की कुछ भी उपलब्धि नहीं हो पाई। देशना मात्र निमित्तरूप होती है और देशनालब्धि उपादान में तत्समय की योग्यता रूप होती है। प्रयोजनभूत बात को न केवल सुनना, बल्कि उसे समझना, उस पर विचार करना देशनालब्धि है। (३८) देशनालब्धि से जीव के विचार इतने विशुद्ध हो जाते हैं कि उसकी विशुद्धि से पूर्वबद्ध कर्मों की स्थिति कुछ हीन हो जाती है और नवीन कर्मों का बन्ध उत्तरोत्तर कम-कम स्थिति का होने लगता है। ऐसी धारा में प्रायोग्यलब्धि का अभ्युदय होता है। जिनको क्षयोपशम, विशुद्धि व देशना - ये तीन लब्धियाँ प्राप्त हो जाती हैं, उनको प्रति समय विशुद्धता की वृद्धि होने से आयुकर्म के बिना सात कर्मों की स्थिति घटती जाती है। इस तरह जब पूर्व कर्मों की सत्ता अन्तः कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण रह जाये और नवीन बन्ध अन्तः कोड़ाकोड़ी प्रमाण के संख्यातवें भागमात्र हो, वह भी उस लब्धि काल से लगाकर यह सम्यग्दर्शन चारों गतियों में होता है, तिर्यंचों को भी होता ही है; और जिन्हें भी होता है, उन्हें ये पाँचों लब्धियाँ भी होती ही हैं? भले वे इनका नाम, स्वरूप एवं परिभाषायें नहीं जानते फिर भी उन्हें सम्यक्त्वप्राप्ति में कोई बाधा नहीं होती। बहुत से मनुष्य भी ऐसे हो सकते हैं, जो परिभाषायें नहीं बोल सकते; फिर भी सम्यग्दृष्टि होते हैं।
SR No.008353
Book TitleJina Khoja Tin Paiya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages74
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size268 KB
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