________________
जिन खोजा तिन पाइयाँ
सुखी जीवन से
(२४) शारीरिक दुःख कैसा भी क्यों न हो, कितना भी अधिक हो; फिर भी व्यक्ति बर्दाश्त कर लेता है, सह लेता है; परन्तु मानसिक दुःख असह्य होता है, उसे व्यक्ति बर्दाश्त नहीं कर पाता । वह भयंकर भी होता है; क्योंकि वह अज्ञानजन्य व कषायजन्य ऐसी मानसिक विकृति है, जो जीवों को विवेक शून्य बना देती है। परिणामस्वरूप व्यक्ति आत्मघात तक कर लेता है।
शारीरिक पीड़ा से परेशान होकर शायद ही किसी ने आत्मघात किया हो, पर मानसिक दुःख से हुई आत्मघात की घटनायें आये दिन समाचार पत्रों में पढ़ने को मिल जायेंगी।
(२५) वैसे तो जिनागम अगाध है; सम्पूर्ण जिनागम का अध्ययन करना और स्मरण रख पाना तो असंभव सा है; परन्तु प्रयोजनभूत वस्तुस्वातंत्र्य जैसे सिद्धान्तों का ज्ञान तो अति आवश्यक ही है। इसके बिना तो मोक्षमार्ग की साधना ही संभव नहीं है।
यदि हम वस्तु स्वातंत्र्य और कर्ता-कर्म जैसे मौलिक सिद्धान्तों को समझ लें तो फिर ऐसे प्रसंग ही नहीं बनेंगे, जिनके कारण इतने संक्लेश परिणाम हों कि किसी को आत्मघात करके मरना पड़े। ___ध्यान रहे, संक्लेश परिणामों के साथ आत्मघात करने से दुर्लभ मानव जीवन का अंत तो हो ही जाता है, मर कर भी वे जीव उन उलझनों से मुक्त नहीं हो पाते, जिन कारणों से उन्होंने आत्मघात किया है। उन्हें नियम से ऐसी कुगति ही प्राप्त होती है, जिसमें उन्हें पहले से भी कई गुनी अधिक प्रतिकूलता प्राप्त होती है।
(२६) जिस तरह बहुमूल्य रत्न यदि हाथ से छूटकर समुद्र के बीच गहरे पानी में गिर जाय तो फिर कभी हमारे हाथ नहीं लगता; उसीतरह यह दुर्लभ
मनुष्य पर्याय, उत्तम कुल, जिनवाणी के श्रवण का श्रेष्ठ अवसर यदि हमने यों ही खो दिया तो फिर यह सुअवसर हमें पुनः प्राप्त होने वाला नहीं है।
(२७) बाह्यकारण तो निमित्त मात्र हैं; वस्तुतः तो अपना आध्यात्मिक अज्ञान ही अपने दुःख का मूल कारण है। अधिक अनुकूलता में भी तो उस अनुकूलता के प्रति तीव्रराग हो जाता है और उनमें अपने अज्ञान के कारण इष्ट बुद्धि तो है ही; उन इष्ट संयोगों का कभी वियोग न हो जाय - इस आशंका मात्र से हमें आकुलता होने लगती है।
(२८) देवगति में जब मरण के छह माह पूर्व देवों के गले की माला मुरझाने लगती है तो मिथ्यादृष्टि देव अपना मरण निकट जानकर विलाप करने लगते हैं और परिणाम स्वरूप नियम से उनकी अधोगति ही होती है।
(२९) जैनदर्शन का वस्तुस्वातंत्र्य का सिद्धान्त ही इस मानसिक राजरोग से बचने का एकमात्र अमोघ उपाय है। यही आत्मज्ञान है, यही तत्त्वज्ञान है और यही सम्यग्ज्ञान की वह कला है, जो हमें सुखी जीवन जीना सिखाती है।
(३०) वस्तुस्वातंत्र्य किसी धर्म विशेष या दर्शन विशेष की मात्र मानसिक उपज या किसी व्यक्ति विशेष का वैचारिक विकल्प मात्र नहीं है। बल्कि यह सम्पूर्ण भौतिक एवं जैविक जगत की अनादि-अनन्त, स्व-संचालित सृष्टि का स्वरूप है, ऑटोमैटिक विश्व-व्यवस्था है। __छह द्रव्यों को ही तो वस्तुत्वगुण की अपेक्षा वस्तु कहते हैं। और वस्तु की स्वतंत्रता को ही वस्तुस्वातंत्र्य कहते हैं।
(३१) प्रत्येक द्रव्य में दो प्रकार के गुण होते हैं - एक सामान्य और दूसरा विशेष । जो गुण सभी द्रव्यों में रहते हैं, उन्हें सामान्य गुण कहते हैं। जैसे