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________________ ८८ जिन खोजा तिन पाइयाँ ( १२ ) दुःख की घड़ियाँ काटे नहीं कटतीं और सुख में समय बीतते देर नहीं लगती। सुखद वातावरण में बरसों का बीता समय परसों जैसा लगता है। अतः सुखद समय में अपने कल्याण का प्रयोजन साध लेना चाहिए। ( १३ ) जीवन सुखी कैसे बने यह बात यदि कोई सिखा सकता है तो वह सन्तान की शुभचिन्तक माँ ही सिखा सकती है। एतदर्थ माँ का शिक्षित और संस्कारी होना अत्यावश्यक है। ( १४ ) यह कहावत गलत नहीं है कि- 'दीवारों के भी कान होते हैं।' अतः ऐसी बात कहना ही नहीं चाहिए, जिस बात को किसी से छिपाने का विकल्प हो और प्रगट हो जाने का भय हो । जो भी बातें कहो, तौलतौलकर कहो। ऐसा समझकर कहो, जिन्हें सारा जगत जाने तो भी कोई विकल्प न हो, भय न हो; बल्कि जितने अधिक लोग जाने, उतनी ही अधिक प्रसन्नता हो देखो, धनुष का बाण, बन्दूक की गोली और मुँह की बोली छूटने पर वापिस नहीं लौटती । अतः इनके प्रयोग में विवेक की बहुत बड़ी आवश्यकता है। (१५) किसी का पिता प्रकाण्ड पण्डित है; किसी का पति नियमित सामूहिक स्वाध्याय / प्रवचन करके जिनवाणी रूप दीपक की ज्योति जला रहा है, फिर भी उसका पुत्र और पत्नी तत्त्वज्ञान से अनभिज्ञ रहें तो ऐसा पूछा जाना स्वाभाविक है कि यह दिया तले अन्धेरा क्यों है? ( १६ ) दूसरों के अच्छे-बुरे व्यवहार से हमें प्रभावित नहीं होना चाहिए । अन्यथा हमारा सुखी रहना या दुःखी होना, दूसरों के हाथ में चला जायेगा । फिर तो कोई भी व्यक्ति हमें कुछ भी कहकर कभी भी दुःखी कर देगा। (४६) सुखी जीवन से ८९ ( १७ ) जिनागम के अनुसार सभी जीव स्वभाव से तो पूर्ण स्वतंत्र व स्वावलम्बी हैं ही, पर्याय में भी सुखी होने के लिए उन्हें पर से अप्रभावी रहकर अपनी स्वतंत्रता व स्वाधीनता को ही पहिचानना है। ( १८ ) यह एक मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि - देह में लगे धनुष के बाणों की चुभन से हृदय में लगे व्यंग्य बाणों की चुभन अधिक पीड़ादायक होती है। ( १९ ) जिनमन्दिर में धर्मकथा के सिवाय कोई यहाँ-वहाँ की बातें करना महान पापबन्ध का कारण है। यदि घर-गृहस्थी में या वाणिज्य-व्यापार में कोई पाप जाता है तो हम अपनी आलोचना करके मन्दिर में उसका प्रायश्चित कर लेते हैं; परन्तु जो मन्दिर में ही विकथा करके पाप करेगा तो उस पाप का वज्रलेप होता है। ( २० ) जैसे ज्वर वालों को दूध भी कड़वा लगता है? वैसे ही जिसे अज्ञान का ज्वर चढ़ा हो, कषायों की तपन हो तो उसे सत्य भी कड़वा लगता ही है। ( २१ ) जैनतत्त्व जितना सूक्ष्म है, उसे समझने के लिए अपने उपयोग को भी उतना ही सूक्ष्म-पैना करना आवश्यक है, अन्यथा बात माथे के ऊपर से ही निकल जाती है, कुछ हाथ नहीं लगता। ( २२ ) प्रयोजनभूत जैन तत्त्वज्ञान ऐसा भारी-भरकम नहीं है; जिसकी साधना / आराधना में बहुत शक्ति व समय लगे। बस, रुचि पलटने भर की देर है, फिर तो सारा मुक्ति मार्ग अत्यन्त सरल व सहज हो जाता है। ( २३ ) इन्द्र, सामाजिक, त्रायस्त्रिंश आदि देव भी छोटे-बड़े के भेदों के कारण होने वाले मानसिक दुःख से नहीं बच पाते। वे भी कषायजन्य हीन भावना से ग्रसित रहते हैं। इस कारण देवगति में भी सुख नहीं है।
SR No.008353
Book TitleJina Khoja Tin Paiya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages74
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size268 KB
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