SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 3
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ हार्दिक उद्गार यद्यपि पीहर (ग्राम पालम, दिल्ली) में जैन पण्डितों के परिवार में जन्म लिया, परन्तु वहाँ पूजा, पाठ आदि क्रियाकाण्डों के अतिरिक्त कुछ जाना, समझा नहीं। जयपुर में हमारे निवास स्थान (विश्वविद्यालय प्रांगण) के निकट स्थापित श्री टोडरमल स्मारक भवन में आने-जाने से विदित हुआ कि धर्म क्रियाकाण्ड से कुछ अधिक है। गृहस्थी की व्यस्तता के कारण दैनिक प्रवचनों के लाभ से तो वंचित रही, परन्तु स्मारक से प्रकाशित हल्के-फुल्के साहित्य ने आध्यात्मिक रुचि जागृत की। आदरणीय पण्डित श्री रतनचन्दजी भारिल्ल द्वारा लिखित सारे उपन्यासों का रुचिपूर्वक अध्ययन किया और यदा-कदा परिवार में उनके कथा साहित्य में समागत सूक्तियों पर चर्चा - वार्ता भी करती रही; परन्तु उनके संकलन एवं लिपिबद्ध करने का अवसर विगत कुछ वर्षों में ही प्राप्त हुआ। आदरणीय पण्डितजी की धर्मपत्नी श्रीमती कमला भारिल्ल ने समयसमय पर कुछ लिखने की प्रेरणा दी। परिणाम स्वरूप प्रस्तुत संकलन तैयार हो पाया, जिसकी अनुमोदना स्वयं पण्डितजी ने प्रदान की। एतदर्थ मैं उन दोनों की हृदय से आभारी हूँ । कलम के धनी श्री पण्डित रतनचन्दजी भारिल्ल की सरल सुगम एवं मृदु अभिव्यक्ति का आस्वादन आपके द्वारा अनुवादित प्रवचन रत्नाकर के अनेक भागों का तथा आपके द्वारा लिखीं छोटी-छोटी पुस्तकों के स्वाध्याय से प्राप्त किया और उनमें समागत महत्त्वपूर्ण उद्धरणों का संकलन विगत वर्षों से निरन्तर करती रही हूँ। इससे सर्वाधिक लाभ यह हुआ कि १९९५ में २५ वर्षीय युवा पुत्र संजीव के अचानक देहावसान की मानसिक पीड़ा तथा आर्त्तध्यान से रक्षा हो सकी और अपने उपयोग को आध्यात्मिक वातारण की ओर आकृष्ट कर पाई हूँ। इसमें परिवारजन का व मेरे पति और परिवार का मुझे पूरा सहयोग मिला। एतदर्थ मैं पण्डितजी एवं अपने पति और परिवार की कृतज्ञ हूँ। दिनांक : २२ अप्रेल, २००६ - (श्रीमती) शान्तिदेवी जैन, जयपुर (३) सम्पादकीय लगभग ग्यारह वर्ष पूर्व हमारे युवा पुत्र संजीव जैन के अचानक देहावसान से शांतिदेवी को गहरा सदमा लगा, जिसके निवारण के लिए उसमें धर्म की रुचि जाग्रत करने के अतिरिक्त और कोई उपाय दृष्टिगत नहीं हुआ । स्व. संजीव, दर्शनशास्त्र का विद्यार्थी था और जैनदर्शन सम्बन्धी शंकाओं के समाधान के लिए पण्डित रतनचन्दजी भारिल्ल से सम्पर्क साधता था। उनके द्वारा प्रदत्त पुस्तकों का भी मनोयोग से अध्ययन करता था और हम दोनों के साथ चर्चा वार्ता भी करता रहता था। स्व. संजीव की ऐसी प्रवृत्ति से प्रेरणा पाकर हम दोनों को तभी से प्रवचन रत्नाकर (हिन्दी) के अनेक भागों से एवं आत्मधर्म, वीतराग विज्ञान, आत्मतत्त्व, स्वानुभूतिप्रकाश आदि अनेक जैन पत्र-पत्रिकाओं के महत्वपूर्ण उद्धरणों को रेखांकित करने तथा उनको डायरियों में लिखने का व्यसन जैसा हो गया था। परिणाम स्वरूप अबतक लगभग १०० डायरियाँ संकलनों से भर गईं हैं, जिनका उपयोग साधर्मीजन रुचिपूर्वक करते रहते हैं। इसी स्वाध्यायधारा के क्रम में आदरणीय पण्डित श्री रतनचन्दजी भारिल्ल की कथा - कृतियों का हमने गहनता से स्वाध्याय किया ही, शान्तिदेवी ने उनके नोट्स भी तैयार किए, डायरियों में उन कृतियों में आये सिद्धान्तों, सूक्तियों एवं लोकव्यवहार में उपयोगी लोकोक्तियों को चुना, मैंने इसमें उनका पूरा साथ दिया, सहयोग किया। एक दिन मुझे भाव आया कि ये डायरियाँ मैं भारिल्ल सा. श्री रतनचन्दजी को दिखाऊँ। मैंने मम्मीजी श्रीमती कमलाजी भारिल्ल को दोनों डायरियाँ देकर उनसे पढ़ने का एवं पण्डितजी सा. से पढ़वाने का निवेदन किया । उन्होंने भारी प्रसन्नता प्रगट की एवं उन्होंने स्वयं तो वे डायरियाँ पढ़ीं ही,
SR No.008353
Book TitleJina Khoja Tin Paiya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages74
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size268 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy