SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 19
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जिन खोजा तिन पाइयाँ (८४) धर्म के क्षेत्र में परीक्षा प्रधानी होना धर्म के प्रति अश्रद्धा नहीं है। परीक्षा करके जो बात स्वीकार की जाती है, वही श्रद्धा अटूट होती है। (८५) स्वाध्याय में शंकायें उत्पन्न होना तो स्वाध्याय का शुभलक्षण है। शंकाएँ या तो सर्वज्ञ को नहीं होतीं या उन अल्पज्ञों को जो केवल स्वाध्याय का नियम निभाने में ही धर्म समझ बैठे हैं। जिसे जरा भी जिज्ञासा होती है, उसे तो शंकायें उत्पन्न होती ही हैं। जिसतरह पानी स्वयं अपना रास्ता बना लेता है, खोज लेता है; ठीक उसीतरह जिज्ञासु भी अपनी शंकाओं के अधिकांश समाधान तो स्वयं ही खोज लेते हैं। फिर भी सामूहिक स्वाध्याय और समय-समय पर सत्संग और तत्त्वचर्चा भी उपयोगी है। जिसप्रकार दही मथने से मक्खन निकलता है, उसीतरह तत्त्व का मंथन करने से सुख-शांति और समताभाव प्रगट होता है, धर्म प्रगट होता है; अतः निःशंक होकर शंका-समाधान करना चाहिए। (८६) बालक का मस्तिष्क एक ऐसा कोरा कागज है, जिस पर जो भी सही या गलत प्रारम्भ में लिख दिया जाता है, वह अपनी ऐसी अमिट छाप छोड़ता है कि फिर उसे न तो आसानी से मिटाया जा सकता है, न बदला जा सकता है। बालक को जो सिखा दिया जाता है, उसका सरल हृदय उसे ही सच मान लेता है। अतः प्रारंभ में ही सत्य का ज्ञान कराना आवश्यक है। निश्चय से तो मैं जीवतत्त्व हूँ और शुद्धात्म मेरा नाम है तथा मैं अपने स्वरूप चतुष्टय में रहता हूँ और मात्र जानना मेरा काम है। परन्तु वर्तमान में लोक व्यवहार में केवल शुद्धात्मा नाम से काम नहीं चलता, यहाँ पर्याय में तो क्षण-क्षण में और कदम-कदम पर नाम, काम, धाम और व्यक्तित्व बदलते रहते हैं। (८७) हम मात्र वर्तमान मानव जीवन के सत्तर-पिचत्तर वर्ष सुखपूर्वक जीने के लिए जीवन का एक तिहाई भाग प्रारंभ के पच्चीस वर्ष की किशोर संस्कार से अवस्था अर्थकरी लौकिक शिक्षा के अर्जन में ही बिता देते हैं, सम्पूर्ण यौवन धनोपार्जन और कुटुम्ब-परिवार के भरण-पोषण में बिता देते हैं, जो केवल भाग्याधीन है। साठ वर्ष के बाद बुढ़ापे का जीवन भी कोई जीवन है। उसे तो ज्ञानियों ने पहले ही अधमरा घोषित कर दिया है। ऐसी स्थिति में विचारणीय बात यह है कि जब अपने और अपने कुटुम्ब परिवार के लौकिक जीवन को सुखी-दुःखी बनाना हमारे हाथ में है ही नहीं तो उसके लिए इतना श्रम, शक्ति व समय का अपव्यय क्यों करे। (८८) वैराग्यमय वातावरण बनाने के लिए शान्तरस से भरपूर संगीतमय आध्यात्मिक भजन, वैराग्य भावना, समाधिमरण, शुद्धात्मशतक, छहढाला आदि सुनाने की व्यवस्था करें, ताकि मरणासन्न व्यक्ति के परिणाम निर्मल हों, दुर्व्यसनों के कारण उत्पन्न हुई आत्मग्लानि दूर हो और आत्मानुशासन प्राप्त करने का सुअवसर मिल सके। (८९) साधर्मी वात्सल्य कहते ही उसे हैं, जिसमें निःस्वार्थ भाव से अपने साधर्मी भाइयों को और कुटुम्ब-परिवार को सन्मार्ग में लगाने के लिए अपना सम्पूर्ण समर्पण कर दे। इससे बढ़कर अन्य कोई पुण्य का कार्य नहीं हो सकता। (९०) किसी भी शुभकाम को कल पर मत टालो! क्या भरोसा इस जीवन का? इस जीवन में कल आयेगा या नहीं, यह कोई नहीं जानता। अतः शुभ काम और आत्माराम की आराधना तो जितने जल्दी बने, उतने ही जल्दी कर लेना चाहिए। कहा भी है - "क्षण भंगुर जीवन की कलियाँ, कल प्रातःकाल खिलीन खिली: यमराज कुठार लिए फिरता, तन पर वह चोट झिली न झिली। क्यों करता है तू कल-कल, कल यह श्वांस मिली न मिली. भज ले प्रभु नाम अरी रसना! फिर अन्त समय में हिली न हिली ।।" (१९)
SR No.008353
Book TitleJina Khoja Tin Paiya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages74
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size268 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy