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________________ संस्कार से जिन खोजा तिन पाइयाँ होती हैं। अतः स्वाध्याय के समय इस बात का ध्यान रखना बहुत आवश्यक होता है कि कहाँ/किस अपेक्षा से कथन किया गया है, किसको मुख्य व किसको गौण किया गया है। ध्यान रहे, जिसे गौण किया हो, उसका निषेध नहीं मान लेना चाहिए। (८०) णमोकार मंत्र में उन पंचपरमेष्ठियों को नमस्कार किया गया है, जिनमें कुछ तो पूर्ण वीतरागी हैं और कुछ वीतरागता के मार्ग पर निरंतर अग्रसर हैं तथा जिन्हें यह देखने-सुनने की फुरसत ही नहीं है कि उन्हें कौन नमस्कार कर रहा है और कौन नहीं कर रहा है? अरहंत व सिद्ध भगवान पूर्ण वीतरागी हैं, उन्हें तो तुम्हारे नमस्कार से कोई प्रयोजन ही नहीं है तथा जो एकदेश वीतरागी आचार्य, उपाध्याय व साधु परमेष्ठी हैं उनको भी किसी के नमस्कार करने न करने से कोई प्रयोजन नहीं हैं। इस महामंत्र में पंचपरमेष्ठी को नमस्कार करने के सिवाय न तो किसी लौकिक कार्य विशेष के करने-कराने या होने की गारंटी दी गई है और न कहीं कोई आश्वासन ही दिया गया है। हाँ, यह एक गारंटी अवश्य है कि जो व्यक्ति इस महामंत्र का स्मरण करेगा. उसमें कहे गये पंच परमेष्ठी के स्वरूप का बारम्बार विचार करेगा; उसके मन में उस समय कोई पाप भाव उत्पन्न ही नहीं होगा। यह परमात्मा की तरह ही बाहर और भीतर से पवित्र हो जायेगा। जब तक मन में पंचपरमेष्ठी का स्मरण रहेगा तब तक पापभाव पैदा नहीं होंगे, आगे-पीछे की उसकी कोई गारंटी नहीं है, भूतकाल में किये गये पापों का फल भी भोगना पड़ सकता है? अकेले स्मरण से ही कार्य की सिद्धि नहीं होती। कार्य की सिद्धि तो अनेक कारणों से ही होती है, पर जिस कारण की महिमा बतानी होती है, उसे मुख्य करके शेष कारणों से गौण किया जाता है। यही जिनवाणी में प्रथमानुयोग के कथन की शैली है। (८१) जो व्यक्ति णमोकार मंत्र के माध्यम से पंच परमेष्ठी का स्वरूप भलीभाँति जानकर उनका स्मरण करता है, भक्ति करता है, बहुमान करता है, वह अवश्य ही उनके द्वारा बताये गये मुक्ति के मार्ग पर चलेगा। जब वह स्वयं उनके बताए गये मुक्ति के मार्ग पर चलेगा तो वह एक न एक दिन पंचपरमेष्ठी पद में शामिल भी हो जायेगा। ऐसी स्थिति में वह पूर्वकृत पापों से बंधे कर्मों की निर्जरा भी करेगा। इस अपेक्षा को ध्यान में रखकर ही णमोकार मंत्र के जाप सर्वपापों का नाश करने वाला कहा गया है। (८२) ___ जब जीवन शक्ति ही समाप्त हो जाती है तो सारे के सारे प्रयत्न धरे रह जाते हैं। मौत के आगे किसी का वश नहीं चलता। यदि पड़ौसी, डॉक्टर, और दवायें ही बचाती होती तो डॉक्टरों ने अपने सगे माँ-बाप एवं प्रिय कुटुम्ब परिवारजनों को क्यों नहीं बचा लिया? वास्तविक बात यह है कि उस मरीज की उपादान की योग्यता ही ऐसी है, जिसे जहाँ जब तक जिन संयोगों में अपनी स्वयं की योग्यता से रहना होता है, तब तक उन्हीं संयोगों के अनुरूप उसे वहाँ उसी रूप में सब बाह्य कारण सहज ही मिलते जाते हैं। एक द्रव्य दूसरे द्रव्य में तो कुछ करता ही नहीं, द्रव्यों का समय-समय होने वाला परिणमन भी स्वतंत्र है। ऐसा ही प्रत्येक वस्तु का स्वभाव है। (८३) जिसे वस्तु के स्वतंत्र परिणमन में श्रद्धा-विश्वास हो जाता है, उसे आकुलता नहीं होती। भूमिकानुसार जैसा राग होता है, वैसी व्यवस्थाओं का विकल्प तो आता है; पर कार्य होने पर अभिमान न हों तथा कार्य न होने पर आकुलता न हो; तभी कारण-कार्य व्यवस्था का सही ज्ञान है - ऐसा माना जायेगा। (१८)
SR No.008353
Book TitleJina Khoja Tin Paiya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages74
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size268 KB
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