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________________ १८ जिन खोजा तिन पाइयाँ ( ३४ ) 'जब तक श्वांसा तब तक आशा', इस उक्ति के अनुसार अपनी वांछित वस्तु को पाने के लिए व्यक्ति जीवन की अन्तिम श्वांस तक भी आशान्वित रहते हैं; अतः हताश होकर हिम्मत न हारो । (३५) केवल आदेशों और उपदेशों की भाषा से कभी कोई सुधर नहीं सकता। किसी भी व्यक्ति को सन्मार्ग पर लाने के लिए पहले उसको अपने विश्वास में लेना और अपना विश्वास उसे देना आवश्यक होता है। उसे अपनाना पड़ता है, अपना बनाना पड़ता है। जब उसे आपके प्रति यह विश्वास हो जाये कि यह व्यक्ति मेरा हितैषी है और मात्र मेरे हित के लिए ही अपना सर्वस्व समर्पण कर रहा है, तब फिर वह स्वतः आपके लिए आत्मसमर्पण कर देता है और आपकी प्रत्येक बात मानने को तैयार हो जाता है। ( ३६ ) जिह्वा के लोलुपी पुरुष रात्रि में भोजन करते हैं, वे लोग न तो भूत, राक्षस, पिशाच और शाकनी - डाकनियों के दुष्प्रभाव से बच सकते हैं और न नाना प्रकार की व्याधियों बीमारियों से ही बच सकते हैं, क्योंकि रात्रि में भूत-पिशाचों का भी संचार होता है और जीव-जंतुओं का भी, जिनके कारण बीमारियाँ पनपती हैं। ( ३७ ) जो आज त्रिलोक पूज्य देवाधिदेव सर्वज्ञ परमात्मा के रूप में प्रतिष्ठित हैं, वे ही कभी पतित, पापी और पशु-पर्याय में थे । अतः पाप तो घृणा योग्य है, पर पापी नहीं । ( ३८ ) जिसकी होनहार भली हो और काललब्धि आ गई हो, उसे पलटते देर नहीं लगती। भगवान महावीर स्वामी के पूर्वभवों को ही देखो न ! मारीचि (११) संस्कार से १९ की होनहार भली नहीं थी तो तद्भव मोक्षगामी भरत चक्रवर्ती का पुत्र और आदि तीर्थंकर ऋषभदेव का पौत्र होकर भी अपने मिथ्यामार्ग से नहीं पलटा। और जब भली होनहार का समय आ गया तो शेर की क्रूर पर्याय में भी सुलट गया, सन्मार्ग पा गया। यह तो समय-समय की बात है। ( ३९ ) आत्मा की उपलब्धि के लिए तो केवल आगम, युक्ति और स्वानुभव ही असली प्रयोगशाला है, जिसके स्वानुभव में और प्रतीति में आ जावे तो ठीक, अन्यथा उसके प्राप्त करने का अन्य कोई उपाय नहीं है। (80) जिसतरह अग्नि का धर्म उष्णता है, पानी का धर्म शीतलता है, उसीतरह आत्मा का धर्म ज्ञाता-दृष्टा रहना है। ज्ञान आत्मा का धर्म है और अज्ञान अधर्म । वीतरागता आत्मा का धर्म है और राग-द्वेष करना अधर्म । क्षमा आत्मा का धर्म है और क्रोध अधर्म । ( ४१ ) जिसकी जिसमें लगन लग जाती है, फिर उसे सर्वत्र वही वही दिखाई देता है। लगन का तो स्वरूप ही कुछ ऐसा है। देखो न, जब लड़का-लड़की की परस्पर लगन (सगाई) हो जाती है, तब से एक दो घड़ियाँ भी ऐसी नहीं जाती, जब एक को दूसरे की याद न आती हो। ( ४२ ) पुराणों का भी अपना अलग आकर्षण होता है। भले ही वे आज की आधुनिक शैली में नहीं हैं, तथापि अपनी ओर आकर्षित करने की अद्भुत क्षमता उनमें हैं। पुराणों में मुख्यरूप से तो महापुरुषों के आदर्श चरित्र एवं उनके पूर्वभवों का ही वर्णन होता है, परन्तु बीच-बीच में नीतिवाक्यामृत, ऋषियों के प्रेरणादायक उपदेश एवं धर्ममार्ग में लगाने और पापाचरण से हटाने के प्रयोजन से लिखे गये अनेक उपकथानक भी होते हैं।
SR No.008353
Book TitleJina Khoja Tin Paiya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages74
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size268 KB
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