SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 85
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ क्षुल्लक पुष्पदन्त ने तत्काल जाकर मुनि विष्णुकुमार को यह सब समाचार सुनाया और गुरु के कहे | | अनुसार उपसर्ग दूर करने की सामर्थ्य से अवगत कराया। | मुनि विष्णुकुमार को स्वयं ही ज्ञात नहीं था कि उन्हें - विक्रियाऋद्धि प्राप्त हो गई है। ज्ञानी संत लौकिक ऋद्धि-सिद्धि के लिए तप करते भी नहीं हैं, फिर भी तप का फल तो मिलता ही है। मुनि विष्णुकुमार ने ऋद्धि की परीक्षा हेतु अपनी भुजा फैलाकर देखी तो भुजा रुकावट बिना-निर्बाध पहाड़ों जैसी दीवारों को भी भेदती हुई बढ़ती ही चली गई। इससे उन्हें अपनी विक्रियाऋद्धि की प्राप्ति का विश्वास हो गया। | जिनशासन के भक्त, वात्सल्यमूर्ति मुनि विष्णुकुमार ने अपने पद भंग होने की परवाह न करके राजा पद्म के पास जाकर उससे कहा - राजा होकर भी यह क्या अनर्थ कर रखा है? ऐसा कार्य तो रघुवंशियों में कभी हुआ ही नहीं। यदि कोई दुष्ट जन तपस्वियों पर उपसर्ग करता है तो प्रथमत: उसे राजा को ही दूर करना चाहिए। हे राजन! जलती हुई अग्नि कितनी ही उग्र-ज्वलन्त क्यों न हो, जल के द्वारा तो शान्त हो ही जाती है न! यदि जल से ही अग्नि भभकने लगे तो अग्नि को बुझाने का अन्य क्या उपाय बाकी बचेगा? यदि राजा दुष्टों का दमन करने में समर्थ नहीं है तो राजनीति में उस राजा को ढूँठवत् नाममात्र का राजा कहा है; इसलिए अविवेकी बलि मंत्री को यह दुष्ट कार्य करने से शीघ्र रोको। मित्र और शत्रुओं पर समभाव रखनेवाले मुनियों पर इसका यह द्वेष? शीतलस्वभावी साधुओं को संताप पहुँचाना और राजा द्वारा मूकदर्शक बने रहने का फल जानते हैं आप? अरे! अभी आपने साधुओं का आशीर्वाद ही देखा है, अभिशाप नहीं। यदि साधु - कदाचित् अपनी साधुता छोड़कर क्रोधित हो जाय तो भस्म भी कर देता है। यदि साधुओं पर अत्याचार हुआ तो कदाचित् साधु अग्नि के समान दाहक भी हो जाते हैं। इसलिए हे राजन! तुम्हारे ऊपर भी कोई वज्रपात न हो जाय, उसके पहले ही बलि के इस कुकृत्य के प्रति की जानेवाली अपनी उपेक्षा को दूर करो। राजा पद्म ने नम्र होकर कहा - हे नाथ! मैंने बलि के लिए सात दिन का राज्य देने का वचन दे दिया ४
SR No.008352
Book TitleHarivanshkatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages297
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size794 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy