SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 84
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ८० देशकाल की परिस्थितियों से सुपरिचित वे चारों मंत्री उज्जैनी से निकाले जाने के बाद हस्तिनापुर में | राजा पद्म की सेवा करने लगे। उस समय राजा पद्म बली मंत्री के सहयोग एवं मार्गदर्शन से दुर्भेद किले ह रि में स्थित राजा सिंहबल को पकड़ने में सफल हो गया, इसलिए राजा पद्म ने बलि को इच्छित वर माँगने वं का वचन दे दिया । बलि बहुत चतुर और राजनीतिज्ञ खिलाड़ी था; अतः उसने उस 'वचन' को धरोहर के रूप में राजा के पास ही रख दिया । श क था राज्याधिकार पाकर उन बलि आदि चारों मंत्रियों ने 'अकम्पनाचार्य आदि ७०० मुनिराजों' पर भारी | उपद्रव किया। उसने चारों ओर से मुनियों को घेरकर तीखे पत्तों का घनीभूत धुँआ करवाया तथा चारों ओर जवारे (दूव) उगाने के लिए जौ आदि अनाज उगाया । इसकारण समस्त मुनि संघ ने यह संकल्प कर अवधि सहित सन्यास धारण कर लिया कि “जब उपसर्ग दूर हो जायेगा, तभी आहार-विहार करेंगे", उस समय मुनिराज विष्णुकुमार के गुरु मिथला नगरी में थे । दैवयोग से उनके अवधिज्ञान में हस्तिनापुर में अकम्पनाचार्य के संघ पर हो रहे भयंकर उपसर्ग की सारी घटना आ गई और उनके मुँह से निकल पड़ा कि - अकंपनाचार्य के संघ पर दारुण उपसर्ग हो रहा है।" पास ही में बैठे क्षुल्लक पुष्पदन्त ने वह बात सुनी तो उन्होंने पूछा - गुरुदेव ! इस उपसर्ग के निवारण का क्या उपाय है? आप मुझे बतायें और मेरा मार्गदर्शन करें कि मैं इस काम में क्या योगदान कर सकता हूँ? उत्तर में गुरुजी ने कहा विक्रियाऋद्धि के धारक मुनि विष्णुकुमार ही यह उपसर्ग दूर कर सकते हैं। 5 FE "आज आ उज्जैनी से विहार करते हुए जब अकम्पनाचार्य का संघ हस्तिनापुर आया और चार माह के वर्षायोग में नगर के बाहर विराजमान हो गया तो बलि आदि मंत्री अपना भेद खुलने की शंका से भयभीत हो गये और उन्हें वहाँ से हटाने का उपाय सोचने लगे । एतदर्थ बली मंत्री ने राजा पद्म के पास जाकर अपनी धरी कं हुई 'वचन' रूप धरोहर के बदले में सात दिन का राज्य शासन मांग लिया । राजा पद्म मांगे 'वरदान' को देकर ७ दिन को अज्ञातवास में चले गये । प चा र्य न औ र मा र
SR No.008352
Book TitleHarivanshkatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages297
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size794 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy