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६४|| था।' इतना कहते ही पृथ्वी फट गई और राजा वसु का स्फटिक मणिमय आसन पृथ्वी में धंस गया। मानो
| पृथ्वी भी राजा वसु के मिथ्या-भाषण को सह नहीं सकी; क्योंकि वसु के थोड़े से मोह ने जो मिथ्यामान्यता | की पुष्टि की, उसका दुष्फल बिचारे पशु आजतक भुगत रहे हैं और न जाने आगे कब तक यह मिथ्यामान्यता
चलती रहेगी और धर्म के नाम पर पशु होम में झोंके जाते रहेंगे। यह मोह ही भयंकर पाप है; जिसके | परिणामस्वरूप राजा वसु सिंहासन के जमीन में फंसते ही मृत्यु को प्राप्त कर सातवें नरक में गया। | हिंसानन्द और मृषानन्द रौद्रध्यान से कलुषित होकर राजा वसु भयंकर दुःखद नरक में गया। जिसे ऐसे | नरकों में नहीं जाना हो, वे वसु की भाँति मोहवश पक्षपात में न पड़ें और मिथ्यामान्यता का समर्थन न करें।
यहाँ पाठकों को प्रस्तुत कथा के द्वारा यह संदेश है कि कोई भी संसारी संज्ञी प्राणी ध्यान के बिना तो रहता नहीं है और मिथ्यात्व की भूमिका में धर्मध्यान किसी को होता नहीं है, इस कारण उनको या तो
आर्तध्यान होता रहता है या रौद्रध्यान! आर्तध्यान दुःखरूप ही होता है। इसके मुख्यतः चार भेद हैं - (१) इष्टवियोगज (२) अनिष्टसंयोगज (३) पीड़ाचिन्तन और (४) निदान । जगत में जो वस्तु या व्यक्ति सुखदायक प्रतीत होता है, वह इष्ट लगता है, प्रिय लगता, भला लगता है और जो दुःखदायक प्रतीत होता है, वह अनिष्ट लगता है, बुरा लगता है अप्रिय लगता है। जो इष्ट लगता है उसके वियोग में दुःखी होना - यह इष्टवियोगज आर्तध्यान है। जो अनिष्ट लगता है, उसके संयोग में दुःखी होना - यह अनिष्टसंयोगज आर्तध्यान है। पीड़ा दो तरह से होती है - एक मानसिक, दूसरी शारीरिक। असाता कर्म के उदयानुसार दोनों तरह की पीड़ा होती है, उसमें दुःखी रहना पीड़ा चिन्तन आर्तध्यान है तथा थोड़ा-बहुत बाह्य धर्माचरण करके उसके फल में लौकिक विषयों की कामना होना निदान आर्तध्यान है - अज्ञानी जीव चौबीसों घंटे इसी में उलझा रहता है और इसके परिणामस्वरूप उसे तिर्यंचगति की प्राप्ति होती है। ___ यदि हमें पशु पर्याय पसंद न हो, एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय में जन्म-मरण करना और अनन्त दुःख भोगना पसंद न हो तो तत्त्वज्ञान के अभ्यास से पर पदार्थों में इष्टानिष्ट की मिथ्याकल्पना का त्याग आवश्यक
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