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________________ F5 0 ६३|| अध्यात्म की बात कह कर मानव हिंसा और क्रूरता के महापाप से नहीं बच सकता । उस कथन का हिंसा अहिंसा के आचरण से कोई संबंध नहीं है। | यह निर्विवाद सिद्ध है कि संसारी जीव शरीर प्रमाण है और मंत्र-तंत्र व अस्त्र-शस्त्र आदि किसी भी साधन से शरीर का घात होने पर जीव को नियम से दुःख ही होता है।" पूर्वपक्ष का यह कहना भी ठीक नहीं है कि - "जिन जीवों की यज्ञ में आहुति देने से मृत्यु होती है, याजक लोग मंत्रों द्वारा उनके चक्षु आदि को सूर्य आदि के पास भेज देते हैं।' पर्वत ने कहा था कि - “होम करते ही मंत्रों द्वारा पशु को स्वर्ग भेज दिया जाता है और वहाँ वह पशु भी याजकों के समान ही कल्पकाल तक सुख भोगता है।" सो यह बात सर्वथा मिथ्या है । प्राणियों के घातक होने से - उन याजकों || को भी स्वर्ग कैसे मिल सकता है? उन्हें तो धर्म के नाम पर प्राणियों के वध करने से नरक ही मिलना चाहिए।" पर्वत ने जितने कुतर्क अपनी मिथ्यामान्यता के पोषण में दिए, नारद ने उन सभी का सुयुक्तियों द्वारा खण्डन कर दिया और अपने पक्ष को प्रबल युक्तियों द्वारा स्थापित किया। सभा में उपस्थित जनसाधारण ने भी नारद के पक्ष का अनुमोदन करते हुए करतल ध्वनि से सभा भवन को गुंजायमान करते हुए नारद को बारम्बार धन्यवाद दिया। तदनन्तर अनेक शास्त्रों के ज्ञाता शिष्टजनों ने अन्तरिक्षचारी राजा वसु से पूछा - "हे राजन्! आप गुरु के द्वारा सुने हुए सत्य अर्थ को कहें। आपने भी तो उन्हीं गुरु से पढ़ा है, जिनसे इन्होंने पढ़ा । आप भी तो इनके सहपाठी रहे हैं। अतः निष्पक्ष, और सत्य निर्णय देकर 'दूध का दूध और पानी का पानी' कहावत को सत्य चरितार्थ करें।" ____ यद्यपि राजा वसु दृढ़बुद्धि था और गुरु के वचनों का उसे भलीभाँति स्मरण था, तथापि मोहवश सत्य का अपलाप करते हुए उसने कहा - हे सभाजनो! यद्यपि नारद ने युक्तियुक्त कहा है, तथापि पर्वत ने जो कहा, वही उपाध्याय का भी मत २ 0 RER
SR No.008352
Book TitleHarivanshkatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages297
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size794 KB
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