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॥ अर्जुन के लोकोत्तर प्रताप और अनुपम सूझ-बूझ से ईर्ष्या कर कौरव राज्य के विषय में हुई संधि में | पक्षपात का दोषारोपण करने लगे। उनका आरोप यह था कि कुरुवंशियों की राज्य सत्ता पर एक ओर तो | मात्र पाँच पाण्डवों को आधा राज्य और दूसरी ओर हम सौ भाइयों को आधा राज्य - यह न्यायोचित नहीं है। इससे बढ़कर और अन्याय क्या होगा ?
पाण्डवों में युधिष्ठिर शान्तिप्रिय व्यक्ति थे, अत: उन्होंने कौरवों के विरोध पर अपनी कोई प्रतिक्रया व्यक्त नहीं की; परन्तु शेष चार भाई गंभीर होने पर भी शान्त नहीं रह सके। वे क्षुभित हो गये और उन्होंने नाना प्रकार से अपनी प्रतिक्रियायें व्यक्त की; किन्तु युधिष्ठिर ने सबको तत्त्वज्ञान का उपदेश देकर शान्त कर दिया। __कौरव अभी भी द्वेष की ज्वाला में जल रहे थे। उन्होंने एक दिन गहरी नींद में सो रहे पाण्डवों के आवासगृह में आग लगा दी। सद्भाग्य से समय पर उनकी नींद खुल गई और पाँचों पाण्डव माता कुन्ती को साथ लेकर सुरंग के रास्ते से निकलकर निर्भय हो अज्ञातवास में चले गये; किन्तु कौरव के कुटुम्बी जनों ने यह समझ लिया कि वे सब जलकर भस्म हो गये। अत: उन्होंने मरणोपरान्त होनेवाले सब क्रिया-कर्म कर दिये।
इस घटना से जनता के हृदय में दुर्योधन के प्रति विद्वेष की ज्वाला प्रज्वलित हो गई। इधर पाण्डव गंगानदी को पार कर तथा वेश बदलकर पूर्व दिशा की ओर कौशिक नगरी पहुँचे । वहाँ के राजा वर्ण की पुत्री कुसुमकोमला ने युधिष्ठिर को देखा और उस पर आकर्षित हो जाने से मन में इच्छा | औ की कि इस जन्म में यही मेरा पति हो । कन्या के अभिप्राय को जानकर युधिष्ठिर को भी उसके प्रति प्रेम जागृत हो गया और वे विवाह की आशा बंधाकर मनुष्यों के चित्त को आकर्षित करते हुए आगे चले गये और बारह वर्ष तक अज्ञातवास में रहकर अपना अधिकार प्राप्त करने के लिए अपनी शक्ति बढ़ाते रहे।
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