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अन्य वस्तु की सीमा को लांघकर उसमें प्रवेश नहीं कर सकती; क्योंकि दोनों के बीच अत्यन्ताभाव की | वज्र की दीवार है, जिसे भेदना संभव नहीं है। | जो वस्तुविशेष जिस द्रव्यगुणमय है, वह अन्य द्रव्य या गुण रूप में संक्रमित नहीं होती। तो वह अन्य वस्तु-विशेष को कैसे परिणमा सकती है? अर्थात् नहीं परिणमा सकती।
"इस लोक में जो वस्तु जितने प्रमाण में जिस किसी चैतन्यस्वरूप या अचैतन्यस्वरूप द्रव्य या गुण में स्वरस से ही अनादिकाल से वर्त रही है वह 'वास्तव में अपनी अचलित वस्तुस्थिति की सीमा का भेदन करना अशक्य होने के कारण उसी द्रव्य या गुण में वर्तती रहती है, वह दूसरे द्रव्य या दूसरे गुणरूप से संक्रमित नहीं होती तो अपने से भिन्न दूसरी वस्तु विशेष को कैसे परिणमा सकती है ? अर्थात् नहीं परिणमा सकती। अतः परभाव का अन्य किसी के द्वारा किया जाना सम्भव नहीं है।"
उक्त कथन से यह स्पष्ट हो जाता है कि प्रत्येक द्रव्य स्वयं कर्ता होकर अपना कार्य करता है और करण, सम्प्रदान, अपादान तथा अधिकरण आदि छहों कारकरूप से द्रव्य स्वयं निज-शक्ति से परिणमित होता है। न तो द्रव्य सर्वथा कूटस्थ नित्य है और न ही सर्वथा निरन्वय (पर्याय) क्षणिक है; अपितु वह अर्थक्रिया करण शक्तिरूप है। वह अपने अन्वयरूप (गुणमय) स्वभाव के कारण एकरूप अवस्थित रहते हुए भी स्वयं उत्पादव्यय रूप है और व्यतिरेक (भेदरूप या पर्यायरूप) स्वभाव के कारण सदा परिणमनशील भी है। यही वस्तु का वस्तुत्व है।
तात्पर्य यह है कि - वह द्रव्यदृष्टि से ध्रुव है और पर्यायदृष्टि से उत्पाद-व्ययरूप है।
वस्तुत: उत्पाद, व्यय के बिना नहीं होता और व्यय, उत्पाद के बिना नहीं होता एवं उत्पाद और व्यय ध्रौव्य स्वरूप अर्थ के बिना नहीं होते। यही वस्तुस्थिति है।
प्रश्न : यदि यह बात है तो आगम में उत्पाद-व्ययरूप कार्य को पर सापेक्ष क्यों कहा?
देखो भाई ! पर्यायार्थिकनय से तो प्रत्येक उत्पाद-व्ययरूप कार्य अपने काल में स्वयं के षट्कारकों से ही होता है, अन्य कोई उसका कर्ता-कर्म आदि नहीं है, फिर भी आगम में उत्पाद-व्ययरूप कार्य का जो २८
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