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भगवान नेमीनाथ के समोशरण में दिव्यध्वनि खिर रही है, जिज्ञासु शांत होकर शांतभाव से सुन रहे हैं । एक जिज्ञासु को जिज्ञासा जगी - हे प्रभो ! विश्वदर्शन की दृष्टि में सुखी होने का मूल मंत्र क्या है ? निराकुल होने का सच्चा उपाय क्या है ? धर्म का स्वरूप तो सुखद है, फिर उसे पाने में कष्ट क्यों है ?
दिव्यध्वनि में समाधान आया- तुम ठीक कहते हो । बात ऐसी ही है, धर्म में कष्ट नहीं है। धर्म कष्टमय नहीं है। सुनो ! वस्तुस्वातन्त्र्य का सिद्धान्त किसी धर्मविशेष या दर्शनविशेष की मात्र मानसिक उपज या | किसी व्यक्ति विशेष का वैचारिक विकल्प मात्र नहीं है; बल्कि यह सम्पूर्ण भौतिक एवं जैविक जगत की अनादि-अनन्त स्व-संचालित सृष्टि का स्वरूप है, ऑटोमेटिक विश्वव्यवस्था है । विश्वव्यवस्था ही विश्वदर्शन है, यही जैनदर्शन है ।
इस जगत में जितने चेतन व अचेतन पदार्थ हैं, जीव-अजीव द्रव्य हैं; वे सब सम्पूर्ण स्वतन्त्र हैं, स्वावलम्बी हैं। उनका एक-एक समय का परिणमन भी पूर्ण स्वाधीन है।
जो किसी न किसी रूप में ईश्वरीय कर्तृत्व में आस्था रखते हैं, यह बात उनके गले उतारना आसान नहीं | है; क्योंकि जनसाधारण की जन्मजात श्रद्धा बदलना सरल नहीं होता । ईश्वरवादियों की तो बात ही दूर; जो ईश्वरवादी नहीं हैं, वे भी अनादिकालीन अज्ञान के कारण पर में एकत्व - ममत्व एवं कर्तृत्व के संस्कारों के कारण पर के कर्ता-धर्ता बने बैठे हैं। उन्हें भी यह सिद्धान्त समझाना टेढ़ी खीर है।
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जनसाधारण की तो क्या बात करें ? दर्शनशास्त्र के धुरन्धर विद्वान भी अपने पूर्वाग्रहों के व्यामोह से इस तथ्य को स्वीकार करने में 'न च नु च' करने से नहीं चूकते और यह सत्य तथ्य समझे बिना धर्म का फल पाना तो दूर, धर्म का अंकुर भी नहीं उगता ।
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