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________________ २७३ || द्वैपायन को शान्त करने की बहुत कोशिश की; किन्तु वे शान्त नहीं हुए। क्रोध में उनका शरीर जलकर भस्म हो गया और वे मरकर अग्निकुमार नामक मिथ्यादृष्टि भवनवासी देव हुए। उन्होंने विभंगावधिज्ञान से सब जान लिया और क्रोधावेश में द्वारिका को भस्म करने लगे ह रि वं श 55 क था श्रीकृष्ण एवं बलदेव ने माता-पिता और अन्य महत्त्वपूर्ण लोगों को बचाने का प्रयत्न किया तो उस क्रोधी देव ने सब तरह से आक्रमण करके सबको नष्ट-भ्रष्ट करने में अपनी पूरी शक्ति लगा दी । -- यह जानकर दोनों माताओं और पिता वसुदेव ने कहा कि हे पुत्रो ! तुम जाओ। तुम दोनों के जीवित रहने से वंश का घात नहीं होगा। माता-पिता को शान्त कर उनकी आज्ञा का पालन कर वे दोनों दुःखी मन से द्वारिका से निकल कर दक्षिण की ओर चले गये । ने इधर वसुदेव आदि यादव तथा उनकी स्त्रियाँ सन्यासपूर्वक देह त्याग कर स्वर्ग में उत्पन्न हुए। जो चरम शरीरी थे, वे ध्यानस्थ हो गये। अग्नि केवल उनके देह ही जला पायी, वे तो रागादि विकार और कर्मों को 'भवितव्यता दुर्निवार है' अन्यथा जिस द्वारिका नगरी की रचना इन्द्र की आज्ञा से कुबेर ने की हो, कुबेर ही जिसका रक्षक हो, वह नगरी अग्नि के द्वारा कैसे जल जाती ? हे बलदेव और हे कृष्ण ! हम लोग चिरकाल से अग्नि के भय से पीड़ित हो रहे हैं, हमारी रक्षा करो, इसप्रकार स्त्री, बालक और वृद्धजनों के घबराहट की | से भरे शब्द सर्वत्र व्याप्त हो रहे थे । घबराये हुए बलदेव और श्रीकृष्ण नगर का कोट तोड़ समुद्र के जल | से अग्नि को बुझाने लगे तो वह जल तैलरूप में परिणत हो गया। उन दोनों ने द्वारिका के जन जीवन की रक्षा करने के जो भी प्रयत्न किए, वे सभी असफल रहे। जब अन्त में कृष्ण और बलदेव ने पैर के आघात से नगर के कपाट गिरा दिए तो द्वैपायन के जीव शत्रु दैत्य ने कहा - "तुम दोनों भाइयों के सिवाय किसी अन्य का निकलना संभव नहीं है।" * E F 5 4 4 1 1 19 10 मि ना थ दि व्य ध्व नि में शी २६
SR No.008352
Book TitleHarivanshkatha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages297
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size794 KB
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